उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लेकिन अब तक बहुत कुछ काम बेगार से चल गया था। मज़दूरों को भोजन मात्र मिल जाता था, अब नक़द रुपये की ज़रूरत सामने आ रही थी। राजाओं का आदर-सत्कार और अंग्रेज़ हुक्काम की दावत-तवाज़ा तो बेगार में न हो सकती थी। कलकत्ते से थिएटर की कम्पनी बुलाई गई थी, मथुरा की रासलीला-मण्डली को नेवता दिया गया था। खर्च का तख़मीना पाँच लाख से ऊपर था। प्रश्न था, ये रुपये कहाँ से आएँ। खज़ाने में झंझी कौड़ी न थी। असामियों से छमाही लगान पहले ही वसूल किया जा चुका था। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। मुहूर्त आता था और कुछ निश्चय न होता था। यहाँ तक कि केवल १५ दिन और रह गए।
संध्या का समय था। राजा साहब उस्ताद मेडूखाँ के साथ बैठे सितार का अभ्यास कर रहे थे। राज्य पाकर उन्होंने अब तक केवल यही एक व्यसन पाला था। वह कोई नई बात करते हुए डरते थे कि कहीं लोग कहने लगें कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया। वह छोटे-बड़े सभी से बड़ी नम्रता से बोलते और यथाशक्ति किसी पहलू पर भी न बिगड़ते थे। मेडूखाँ इस वक़्त उन्हें डाँट रहे थे–सितार बजानाकोई मुँह का नेवाला नहीं है–कि दीवान साहब और मुंशीजी आकर खड़े हो गए।
विशालसिंह ने पूछा–कोई ज़रूरी काम है?
ठाकुर–ज़रूरी काम न होता, तो हुज़ूर को इस वक़्त क्यों कष्ट देने आता?
मुंशी–दीवान साहब तो आते हिचकते थे। मैंने कहा कि इंतज़ाम की बात में कैसी हिचक? चलकर साफ़-साफ़ कहिए। तब डरते-डरते आए हैं।
ठाकुर–हुज़ूर, उत्सव को अब केवल एक सप्ताह रह गया है और अभी तरक रुपये की कोई सबील नहीं हो सकी। अगर आज्ञा हो, तो किसी बैंक से ४ लाख क़र्ज़ ले लिया जाए।
राजा–हरगिज नहीं। आपको याद है तहसीलदार साहब, मैंने आपसे क्या कहा था? मैंने उस वक़्त तो कोई क़र्ज़ ही नहीं लिया, जब कौड़ी-कौड़ी का मोहताज़ था। क़र्ज़ का तो आप ज़िक्र ही न करें।
मुंशी–हुजूर, क़र्ज और फ़र्ज़ के रूप में तो केवल ज़रा-सा अन्तर है; पर अर्थ में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है।
दीवान–तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं?
राजा–ये-हीरे जवाहरात ढेरों पड़े हुए हैं। क्यों न इन्हें निकाल डालिए? किसी जौहरी को बुलाकर दाम लगवाइए!
दीवान–महाराज, इसमें तो रियासत की बदनामी है।
|