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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर–मुझे तो आप इस जंजाल में न फँसाएँ तो बहुत अच्छा हो।

यशोदा०–तुम्हें जंजाल में नहीं फँसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मन्त्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्तव्य समझेगी। मैं स्वार्थवश ऐसा नहीं कर रहा हूँ। मैं स्वयं आगरे की हिन्दू-सभा का मन्त्री हूँ और सेवा-कार्य का महत्त्व समझता हूँ। अगर मैं समझता कि यह सम्बन्ध आपके काम में बाधक होगा, तो कभी आग्रह न करता। मैं चाहता हूँ कि आप एक बार अहिल्या से मिल लें। यों मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका; पर अहिल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ! आप भी शायद यह पसन्द न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूँ। आप शरमाएँ नहीं, यों समझ लीजिए कि आप मेरे दामाद हो चुके; केवल मेरे साथ सैर करने चल रहे हैं। आपको देखकर आपकी सास, साले सभी खुश होंगे।

चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धांत-रूप से वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे; पर इस समय आगरे जाते हुए बड़ा संकोच हो रहा था। कहीं उसकी इच्छा न हुई तो? कौन बड़ा सजीला जवान हूँ, बातचीत करने में भी तो चतुर नहीं, और उसके सामने तो शायद मेरा मुँह ही न खुले। कहीं उसने मन फ़ीका कर लिया, तो मेरे लिए डूब मरने की जगह होगी। फिर कपड़े-लत्ते भी तो नहीं हैं, यह दो कुर्तों की पूँजी है। बहुत हैस-वैस के बाद बोले–मैं सच कहता हूँ, मैं अपने को ऐसी...ऐसी सुयोग्य स्त्री के योग्य नहीं समझता।

यशोदा०–इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़नेवाला नहीं हूँ। मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूँ। आप संकोच के कारण ऐसा कह रहे हैं; पर अहिल्या उन चंचल लड़कियों में से नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े।  आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। हाँ, मैं इतना कर सकता हूँ कि आपकी खातिर उससे पहले यह कहूँ कि आप एक परदेशी आदमी हैं, यहाँ सैर करने के लिए आए हैं। स्टेशन पर होटल पूछ रहे थे। मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जाएँगे, साथ लेता आया। क्यों, कैसी रहेगी?

चक्रधर ने अपनी प्रसन्नता को छिपाकर कहा–क्या यह नहीं हो सकता कि मैं और किसी समय आ जाऊँ?

यशोदा०–नहीं, मैं इस काम में विलम्ब नहीं करना चाहता। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहाँ ठहरा सकता हूँ, पर शायद आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे।

चक्रधर ने सोचा, अगर मैंने और ज़्यादा टाल-मटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहिल्या को यहाँ न पहुँचा दें। तब तो सारा परदा ही खुल जाएगा। घर की दशा देखकर अवश्य ही उनका दिल फिर जाएगा। एक तो ज़रा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नहीं, उस पर न कोई साज, न सामान। विवाह होने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है–अच्छा हो या बुरा। दो-चार दिन अपनी तकदीर को रोकर शान्त हो जाती है। बोले–जी हाँ, यह मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूँगा।

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