उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ-न-कुछ उदार हो जाते हैं। निर्मला तो खुशी से ऱाजी हो गई। हाँ, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ; लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति नहीं की। अब केवल ठाकुर हरिसेवक सिंह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे; पर आज नौ बजते-बजते जा पहुँचे।
ठाकुर साहब इस वक़्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहान्त हो चुका था। लौंगी उस वक़्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर सँभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गए और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। नाम और गुण में इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूँक दो तो उड़ जाए; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।
क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भाँति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूर्ति थी, अचल और अपार। बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था। बस, जल-ही-जल दिखाई देता था। न आँखों का पता था, न नाक का, न मुँह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी, पर बाहर की स्थूलता ने अन्दर की कोमलता को अक्षुझण रखा था। सरल, सहद, हँसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थी। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो; पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी गिड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था; पर उसके माथे पर ज़रा भी बल न आता। ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।
इस वक़्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्लाकर बोल रहे थे और लौंगी अपराधियों की भाँति सिर झुकाए खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा–बाबूजी आए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं।
ठाकुर साहब की भौहें तन गईं, बोले–कहना क्या चाहते होंगे, रुपये माँगने आए होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।
लौंगी–इनके रुपये दे क्यों नहीं देते? बेचारे ग़रीब आदमी हैं, संकोच के मारे नहीं माँगते, कई महीने तो चढ़ गए?
ठाकुर–यह भी तुम्हारी मूर्खता थी, जिसकी बदौलत मुझे यह तावान देना पड़ता है। कहता था कि कोई ईसाइन रख लो, दो-चार रुपये में काम चल जाएगा। तुमने कहा–नहीं, कोई लायक आदमी होना चाहिए। इनके लायक होने में शक नहीं; पर यह तो बुरा मालूम होता है कि जब देखो, रुपये के लिए सिर पर सवार। अभी कल कह दिया कि घबराइए नहीं, दस-पाँच दिनों में मिल जाएँगे। तब तक फिर भूत की तरह सवार हो गए।
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