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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा–और जो उस वक़्त मेरे पास न हुए तो?

चक्रधर–तो फिर कभी माँगूँगा।

मनोरमा–तो आप मुझसे अभी माँग लीजिए, अभी मेरे पास रुपये हैं, दे दूँगी। फिर आप जाने किस वक़्त माँग बैंठे?

यह कहकर मनोरमा अन्दर गयी और कलवाले १२० रुपये लाकर चक्रधर के सामने रख दिये।

चक्रधर–इस वक़्त तो मुझे ज़रूरत नहीं। फिर कभी ले लूँगा।

मनोरमा–जी नहीं, लेते जाइए। मेरे पास खर्च हो जाएँगे। एक दफ़े भी बाज़ार गयी, तो ग़ायब हो जाएँगे। इसी डर के मारे मैं बाज़ार नहीं जाती।

चक्रधर–तुमने ठाकुर साहब से पूछ लिया है?
मनोरमा–उनसे क्यों पूछूँ? गुड़िया लाती हूँ, तो उनसे नहीं पूछती, तो फिर इसके लिए उनसे क्यों पूछूँ।

चक्रधर–तो फिर यों मैं नहीं लूँगा। यह स्थिति और ही है। यह ख़याल हो सकता है कि मैंने तुमसे रुपये ठग लिये। तुम्हीं सोचो, हो सकता है या नहीं?

मनोरमा–अच्छा, आप अमानत समझकर अपने पास रखे रहिए।

इतने में सामने से मुश्की घोड़ों की फिटन जाती हुई दिखाई दी। घोड़ों के साज़ों पर गंगा-यमुनी काम किया हुआ था। चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे।

चक्रधर–कोई रानी मालूम होती हैं।

मनोरमा–जगदीशपुर की महारानी हैं। जब उनके यहाँ जाती हूँ, मुझे एक गिन्नी देती हैं। ये आठों गिन्नियाँ उन्हीं की दी हुई हैं। न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं।

चक्रधर–इनकी कोठी दुर्गाकुण्ड की तरफ़ है ना! मैं एक दिन इनके यहाँ भिक्षा माँगने जाऊँगा।

मनोरमा–मैं जगदीशपुर की रानी होती, तो आपको बिना माँगे ही बहुत-सा धन दे देती।

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