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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


हरिसेवक–हाँ, उसे पहले ही हुक्म दिया जा चुका है।
मनोरमा–जुलूस का प्रबंध ठीक है न? मैं डरती हूँ, कहीं भद्द न हो जाये।

हरिसेवक–प्रबन्ध तो मैंने सब कर दिया है; पर इस विषय में रियासत की ओर से उत्साह प्रकट हो रहा है, वह शायद इसके लिए हानिकर हो। रियासतों पर हुक्काम की कितनी बड़ी निग़ाह होती है, यह आपको खूब मालूम है। मैं पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि आपको इस मामले में खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिए।

मनोरमा–क्या आप समझते हैं कि मैं बिना-सोचे-विचारे ही कोई काम कर बैठती हूँ? मैंने सोच लिया है; बाबू चक्रधर चोर नहीं, डाकू नहीं, खूनी नहीं, एक सच्चे आदमी हैं। उनका स्वागत करने के लिए हुक्काम हमसे बुरा मानते हैं, तो मानें। हमें इसकी कोई परवाह नहीं। जाकर सम्पूर्ण दल को तैयार कीजिए।

हरिसेवक–श्रीमान् राजा साहब की तो राय है कि शहरवालों को जुलूस निकालने दिया जाये, हमारे सम्मिलित होने की ज़रूरत नहीं।

मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा–राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है। सन्मार्ग पर चलने में रियासत के विषय में इतना चिन्तित होने की क्या ज़रूरत?

दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा–बेटी, तुम्हारे ही भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानतीं, ज़माना कितना नाजुक है।

मनोरमा उत्तेजित होकर बोली–पिताजी, इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी  बहुत अनुगृहीत हूँ; लेकिन मेरी आत्मा उसे ग्रहण नहीं करती। मैंने सर्प की भाँति धनराशि पर बैठकर उसकी रक्षा करने के लिए यह पद नहीं स्वीकार किया है, बल्कि अपनी आत्मोन्नति और दूसरों के उपकार के लिए ही। अगर रियासत इन दो में से एक काम भी न आये, तो उसका रहना ही व्यर्थ है। अभी सात बजे हैं। आठ बज़ते-बज़ते स्टेशन पहुँच जाना चाहिए। मैं ठीक वक़्त पर पहुँच जाऊँगी। जाइए।

दीवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज़ पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो वह चक्रधर के स्वागत के अवसर पर देना चाहती थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गई थी कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक़्त तक ख़बर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मज़बूर न कर दिया। कुछ देर तक तो बेचारे खाँसी को दबाते रहे; लेकिन नैसर्गिक क्रियाओं को रोक कौन सकता है? खाँसी दबकर उत्तरोत्तर प्रचंड होती जाती थी, यहाँ तक कि अन्त में वह निकल ही पड़ी...कुछ छींक थी, कुछ खाँसी और कुछ इन दोनों का सम्मिश्रण, मानों कोई बन्दर गुर्रा रहा हो। मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाईं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम-विह्वल नेत्रों से ताक रहे हैं। बोली–क्षमा कीजिएगा, मुझे आपकी आहट ही न मिली। क्या आप देर से बैठे हैं?

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