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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मंगला ने पड़े-पड़े कहा–सोने दो; अभी तो सोयी हूँ फिर सिर पर सवार हो गई?

मनोरमा–तो फिर मैं जाती हूँ, यह न कहना, मुझे क्यों नहीं जगाया!

मंगला–(आँखें खोलकर) अरे! इतना दिन चढ़ आया! मुझे पहले ही क्यों न जगा दिया?

मनोरमा–जगा तो रही हूँ, जब तेरी नींद टूटे। स्टेशन चलेगी?

मंगला–मैं स्टेशन कैसे जाऊँगी!

मनोरमा–जैसे मैं जाऊँगी, वैसे ही तू भी चलना। चल कपड़े पहन ले!

मंगला–न भैया, मैं न जाऊँगी। लोग क्या कहेंगे?

मनोरमा–मुझे जो कहेंगे, वही तुझे भी कहेंगे; मेरी खातिर से सुन लेना!

मंगला–आपकी बात और है, मेरी बात और। आपको कोई नहीं हँसता, मुझे सब हँसगे। मगर मैं डरती हूँ, कहीं तुम्हें नज़र न लग जाये।

मनोरमा–चल-चल, उठ, बहुत बातें न बना। मैं तुझे खींचकर ले जाऊँगी, मोटर में पर्दा कर दूँगी; अब राज़ी हुई?

मंगला–हाँ, यह तो अच्छा उपाय है, लेकिन मैं नहीं जाऊँगी। अम्माँजी सुनेंगी तो बहुत नाराज़ होंगी।

मनोरमा–और जो उन्हें भी ले चलूँ, तब तो कोई आपत्ति न होगी?

मंगला–वह चलें तो मैं भी चलूँ, लेकिन नहीं, वह बड़ी बूढ़ी हैं, जहाँ चाहें वहाँ जा-आ सकती हैं। मैं तो लोगों को अपनी ओर घूरते देखकर कट ही जाऊँगी।

मनोरमा–अच्छा, पड़ी-पड़ी सो, मैं जाती हूँ। अभी बहुत-सी तैयारियाँ करनी हैं।

मनोरमा–अपने कमरे में आयी और मेज पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब की इत्तला हुई और एक क्षण में आकर वह एक कुर्सी पर बैठ गए। मनोरमा ने पूछा–रियासत का बैण्ड तैयार है न?

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