उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
महमूद–और मेरा जी चाहता है कि तुम्हें पीटूँ। मियाँ-बीवी यहाँ आये तो बच्चे को किस पर छोड़ आते। घर में और कोई न हो तो?
यशोदा०–तो फिर उन्हीं को यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी?
महमूद०–तुम ‘एथीइस्ट’ (नास्तिक) हो; तुम क्या जानो की सच्चा मज़हबी जोश किसे कहते हैं?
यशोदा०–ऐसे मज़हबी जोश को दूर से ही सलाम करता हूँ। इस वक़्त दोनों मियाँ-बीवी हाय-हाय कर रहे होंगे।
महमूद–कौन जाने, वे भी यहीं कुचल-कुचला गए हों।
लड़की ने साहस कर कहा–तुम हमें घल पहुँचा दोगे? बाबूजी तुमको पैछा देंगे!
यशोदा०–अच्छा बेटी, चलो, तुम्हारे बाबूजी को खोजें।
दोनों मित्र बालिका को लिए हुए कैंप में आये, यहाँ पर कुछ पता न चला। तब दोनों उस तरफ गये, जहाँ मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे। महमूद ने बालिका को कन्धे पर बैठा लिया और यशोदानन्दन चारों तरफ़ चिल्लाते फिरे–यह किसकी लड़की है? किसी की लड़की तो नहीं खो गई? यह आवाज़ें सुनकर कितने ही यात्री, हाँ-हाँ, कहाँ-कहाँ, करके दौड़े; पर लड़की को देखकर निराश लौट गए।
चिराग़ जले तक दोनों मित्र घूमते रहे। नीचे-ऊपर, क़िले के आस-पास, रेल के स्टेशन पर, अलोपी देवी के मन्दिर की तरफ़ यात्री-ही-यात्री पड़े हुए थे; पर बालिका के माता-पिता का कहीं पता न चला। आखिर निराश होकर दोनों आदमी कैंप लौट आये।
दूसरे दिन समिति के और कई सेवकों ने फिर पता लगाना शुरू किया। दिन-भर दौड़े, सारा प्रयाग छान मारा, सभी धर्मशालाओं की ख़ाक छानी; पर कहीं पता न चला।
तीसरे दिन समाचार-पत्रों में नोटिस दिया गया और दो दिन वहाँ और रहकर समिति आगरे लौट गयी। लड़की को भी अपने साथ लेती गयी। उसे आशा थी कि समाचार-पत्रों से शायद सफलता मिल जाए। जब समाचार-पत्रों से कुछ पता न चला, तब विवश होकर कार्यकर्ताओं ने उसे वहीं के अनाथालय में रख दिया। महाशय यशोदानन्दन ही उस अनाथालय के मैनेजर थे।
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