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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....

बनारस में महात्मा कबीर के चौरे के निकट मुंशी वज्रधरसिंह का मकान है। आप हैं तो राजपूत, पर अपने को मुंशी लिखते हैं और कहते हैं। ‘मुंशी’ की उपाधि से आपको बहुत प्रेम है। ‘ठाकुर’ के साथ आपको गँवारपन का बोध होता है, इसलिए हम भी आपको मुंशीजी कहेंगे। आप कई साल से सरकारी पेंशन पाते हैं। बहुत छोटे पद से तरक्की करते-करते आपने अन्त में तहसीलदारी का उच्च पद प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आप उस महान् पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज़ पर रहे; पर आप अपने को ‘साबिक तहसीलदार’ लिखते थे और मुहल्लेवाले भी उन्हें खुश करने को ‘तहसीलदार साहब’ ही कहते थे। यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल २५ रु. मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाज़ार-हाट खुद ही करनी पड़ती थीं। घर में चार प्राणियों का खर्च था। एक लड़की थी, एक लड़का और स्त्री। लड़के का नाम चक्रधर था। वह इतना ज़हीन था कि अपने पिता के पेंशन के ज़माने में जब घर से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकती थी, केवल अपने बुद्धि-बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। मुंशीजी ने पहले से ही सिफ़ारिश पहुँचानी शुरू की थी। दरबारी की कला में वह निपुण थे। हुक्काम को सलाम करने का उन्हें मरज़ था। हाकिमों के दिये हुए सैकडों प्रशंसा-पत्र उनकी अतुलनीय सम्पत्ति थे। उन्हें वह बड़े गर्व से दूसरों को दिखाया करते थे। कोई नया हाकिम आये, उससे ज़रूर, रब्त-ज़ब्त कर लेते थे। हुक्काम ने चक्रधर का ख़याल करने के वादे भी किये थे; लेकिन जब परीक्षा का नतीज़ा निकला और मुंशीजी ने चक्रधर से कमिश्नर के यहाँ चलने को कहा, तो उन्होंने जाने से साफ़ इनकार किया।

मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा–क्यों? क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?

चक्रधर–मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

वज्रधर–वह ख़ब्त तुम्हें कब से सवार हुआ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या?

चक्रधर–मैं आज़ाद रहना चाहता हूँ।

वज्रधर–आज़ाद रहना था तो एम.ए. क्यों किया?

चक्रधर–इसलिए कि आज़ादी का महत्त्व समझूँ।

उस दिन से पिता और पुत्र में आये दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बुढ़ापे में भी शौक़ीन आदमी थे। अच्छा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा अभी तक बनी हुई थी। अब तक इसी ख़याल से दिल को समझाते थे कि लड़का नौकर हो जाएगा तो मौज़ करेंगे। अब लड़के का रंग देखकर बार-बार झुँझलाते और उसे कामचोर, घमंडी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते थे–अभी तुम्हें कुछ नहीं सूझती, जब मैं मर जाऊँगा तब सूझेगी। तब सिर पर हाथ रख कर रोओगे। लाख बार कह दिया–बेटा, यह ज़माना खुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी न पूछेगा। तुम बैठे आज़ादी का मज़ा उठा रहे हो और तुम्हारे पीछेवाले बाज़ी मारे जाते हैं। वह ज़माना लद गया, जब विद्वानों की क़द्र थी। अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता। जैसे और चीज़ें बनाने के कारखाने खुल गए हैं, उसी तरह विद्वानों के कारखाने भी हैं और उनकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है।

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