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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यह कहते-कहते मनोरमा की आँखें सजल हो गईं। उसने मुँह फेरकर आँसू पोंछ डालें और फिर बोली–आप मुझे दिल में जो चाहे, समझें; मैं इस समय आपसे सब कुछ कह दूँगी। मैं हृदय में आप ही की उपासना करती हूँ। मेरा मन क्या चाहता है, यह मैं स्वयं नहीं जानती; अगर कुछ-कुछ जानती भी हूँ, तो कह नहीं सकती। हाँ, इतना कह सकती हूँ कि जब मैंने देखा कि आप की परोपकार कामनाएँ धन के बिना निष्फलक हुई जाती हैं जो कि आपके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, तो मैंने उसी बाधा को हटाने क लिए यह बेड़ी अपने पैरों में डाली। मैं जो कुछ कह रही हूँ, इसका एक-एक अक्षर सत्य है। मैं यह नहीं कहती कि मुझे धन से घृणा है। नहीं, दरिद्रता को संसार की विपत्तियों में सबसे दु:खदायी समझती हूँ। लेकिन मेरी सुख-लालसा किसी भी भले घर में शान्त हो सकती थी। उसके लिए मुझे जगदीशपुर की रानी बनने की ज़रूरत न थी। मैंने केवल आपकी इच्छा के सामने सिर झुकाया है, और मेरे जीवन को सफल करना अब आपके हाथ है।
चक्रधर ये बातें सुनकर मर्माहत से हो गए। उफ्! यहाँ तक नौबत पहुँच गई! मैंने इसका सर्वनाश कर दिया। हा विधि! तेरी लीला कितनी विषम है! वह इसलिए उससे दूर भागे थे कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के काँटों में घसीटना न चाहते थे। उन्होंने समझा था, उनके हट जाने से मनोरमा उन्हें भूल जायेगी और अपने इच्छानुकूल विवाह करके सुख से जीवन व्यतीत करेगी।
उन्हें क्या मालूम था कि उनके हट जाने का यह भीषण परिणाम होगा और वह राजा विशालसिंह के हाथों में जा पड़ेगी! उन्हें वह बात याद आयी, जो एक बार उन्होंने विनोद-भाव से कही थी–तुम रानी होकर भूल जाओगी। उसका जो उत्तर मनोरमा ने दिया था, उसे याद करके चक्रधर एक बार काँप उठे। उन शब्दों में इतना दृढ़ संकल्प था, इसकी वह उस समय कल्पना भी न कर सकते थे। चक्रधर मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए। उनके हृदय में एक साथी ही करुणा, भक्ति, विस्मय और शोक के भाव उत्पन्न हो गए। प्रबल उत्कंठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर सिर रख दें और रोएँ। वह अपने को धिक्कारने लगे। मनोरमा को इस दशा में लाने का, उसके जीवन की अभिलाषाओं को नष्ट करने का भार उनके सिवा और किस पर था?
सहसा मनोरमा ने फिर कहा–आप मन में मेरा तिरस्कार तो नहीं कर रहे हैं?
चक्रधर लज्जित होकर बोले–नहीं मनोरमा, तुमने मेरे हित के लिए जो त्याग किया है, उसका दुनिया चाहे तिरस्कार करे, मेरी दृष्टि में तो वह आत्म-बलिदान से कम नहीं; लेकिन क्षमा करना, तुमने पात्र का विचार नहीं किया। तुमने कुत्ते के गले में मोतियों की माला डाल दी। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अभी तुमने मेरा असली रूप नहीं देखा। देखकर शायद घृणा करने लगो! तुमने मेरा जीवन सफल करने के लिए अपने ऊपर जो अन्याय किया है, उसका अनुमान करके ही मेरा मस्तिष्क चक्कर खाने लगता है। इससे तो कहीं अच्छा था कि मेरा जीवन नष्ट हो जाता, मेरे सारे मंसूबे धूल में मिल जाते। मुझे जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करना चाहिए था। अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने व्रत पर दृढ़ रहने की शक्ति-प्रदान करें। वह अवसर कभी न आए कि तुम्हें अपने इस असीम विश्वास और असाधारण त्याग पर पछताना पड़े। अगर वह अवसर आनेवाला हो, तो मैं वह दिन देखने के लिए जीवित न रहूँ। तुमसे भी मैं एक अनुरोध करने की क्षमा चाहता हूँ। तुमने अपनी इच्छा से त्याग का जीवन स्वीकार किया है। इस ऊँचे आदर्श का सदैव पालन करना। राजा साहब के प्रति एक पल के लिए भी तुम्हारे मन में अश्रद्धा का भाव न आने पाए। अगर ऐसा हुआ, तो तुम्हारा यह त्याग निष्फलक हो जायेगा।
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