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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफ़सर के पास जाते, कभी उस अफ़सर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुसलिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। इतने जल्द कोई इन्तज़ाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिन्दुओं को संगठित करने में लगाते तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता; लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाए बैठे रहे। अन्त में वह निराश होकर उठे, तो मुसलिम वीर धावा बोल चुके थे। वे ‘अली! अली! ’ का शोर मचाते जाते थे कि बाबू साहब सामने नज़र आ गए। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी ‘मारो! ’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गए। सवाल जवाब कौन करता? उन पर चारों तरफ़ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आई, यही सोचते खड़े रह गए कि समझाने से ये लोग शान्त हो जाएँ तो क्यों किसी की जान लूँ। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।

यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मज़ा पाकर लोगों का ज़ोश दूना हो गया। अब फ़तह का दरवाज़ा खुला हुआ था। हिन्दू मुहल्लों के द्वार बन्द हो गए। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे थे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिन्दू मिला, वह पिटा; घर लुटने लगे, ‘हाय-हाय’ का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे-ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोएँ खड़े हो जाते।

लेकिन बाबू यशोदानन्दन के मरने की ख़बर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट पहुँचते ही अड़ियल ट्टटू और गरियाल बैल भी सँभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियाँ खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानन्दन का खून हिन्दुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवादल के दो सौ युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार सौ पिस्तौल और बन्दूक़ें भी खोज निकाली गईं। हिन्दू मुहल्ले में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लों में वही हिन्दू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की शुश्रूषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हँस-हँसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानो लड़के गुड़ियाँ पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकलाते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरों की वीरता में बड़ा अन्तर है।

सहसा ख़बर उड़ी कि यशोदानन्दन के घर में आग लगा दी गई है और दूसरे घरों में आग लगाई जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहाँ उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमी रहेंगे। दोनों अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिससे हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाए। दो-ढाई हज़ार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बड़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलो में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करता दिखाई दिया। चाल और भी तेज़ की और क्षण में लोग अग्नि-कुंड के सामने जा पहुँचे। देखा, तो वहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं, आग लगी है; लेकिन बाहर की ओर। अन्दर जाकर देखा, तो खाली पड़ा हुआ था। वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बन्द किए बैठी थी। इन्हें देखते-देखते ही वह रोती हुई बाहर निकल आयी और बोली–हाय मेरी अहिल्या! अरे दौड़ो, उसे ढूँढो, पापियों ने न जाने उसकी क्या दुर्गति की। हाय! मेरी बच्ची!

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