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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


एक युवक ने पूछा–क्या अहिल्या को उठा ले गए?

वागीश्वरी–हाँ भैया! उठा ले गए। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे; लेकिन न मानी। ज़्यों ही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी। हाय! उनकी बातों को न भूलूँगी। आप तो गए ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही; इन झगड़ों में न पड़ो! न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूसरा ठौर-ठिकाना है, न हिन्दुओं के लिए। दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश में मरेंगे। फिर आपस में क्यों लड़े मरते हो, क्यों एक दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो? न तुम्हारे निगले वे निगले जाएँगे, न उनके निगले तुम निगले जाओगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियाँ तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूँका करती हैं। मान गए होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता! आप जान से गए, बच्ची भी हर ली गई, और न जाने क्या होना है? जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची की तलाश करो। जाकर ख़्वाज़ा महमूद से कहो, उसका पता लगाएँ। हाय! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों में दाँत-काटी रोटी थी। ख्वाज़ा साहब उसके साथ प्रयाग गये थे और अहिल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है!  कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर गोद में सौंपा था, उसके विवाह में पाँच हाज़ार ख़र्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों यह दुर्गति। हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी! उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा! हाय भगवान्! बहुत आदमी मत जाओ। चार आदमी काफ़ी हैं। उनकी लाश भी ढूँढ़ो। कीं आस-पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।

वागीश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शान्त करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर इंज़िन समय पर आ पहुँचा और अग्नि का वेग कम हुआ। फिर भी लपटें किसी साँप की तरह ज़रा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह जा पहुँचती थीं। संध्या समय जाकर आग बुझी।

उधर लोग ख्वाज़ा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानन्दन की लाश रखी हुई है और ख्वाज़ा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले–तुम समझते होगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज़्यादा अज़ीज़ नहीं। अगर मुझ पर किसी क़ातिल का हाथ उठता, तो यशोदा उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे ख़तरे में देखकर अपनी जान की परवा न करता। फिर भी हम दोनों की ज़िन्दगी के आख़िरी साल मैदानबाज़ी में गुजरे और आज उसका यह अंज़ाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की। अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब क़ौम की नजात होगी। यशोदा भी इत्तहाद का उतना ही हामी था, जितना मैं। शायद मुझसे भी ज़्यादा, लेकिन खुदा जाने कौन-सी ताकत थी, हम दोनों को बरसरेजंग रखती थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे, पर हमारी मर्ज़ी के खिलाफ़ कोई दैवी हमको लड़ाती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हों, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही मक़तब में पढ़े, एक ही स्कूल में तालीम पायी, एक ही मैदान में खेले। यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्माँज़ान इसको मुझसे ज़्यादा चाहती थीं, इसकी अम्माँजान, मुझे इससे ज़्यादा। उस ज़माने की तस्वीर आज आँखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंज़ाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गर्दन में बाँहे डालकर मैं बाग़ों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनी पसेपुश्त होती थी। रूबरू मारे शर्म के हमारी आँखें ही न उठती थीं। आह! काश, मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया! खुदा जानता है, इन कमज़ोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।

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