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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर पीछे घूमे ही थे कि निर्मला ने उनका हाथ पकड़ लिया और स्नेहपूर्ण तिरस्कार करती हुई बोली–बच्चा, तुमसे ऐसी आशा न थी। अब भी हमारा कहना मानों, हमारे कुल के मुँह में कालिख न लगाओ।

चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा–मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की; लेकिन इस विषय में मज़बूर हूँ।

वज्रधर ने क्लेष के भाव से कहा–साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं।

चक्रधर–अगर आप लोगों की यही इच्छा है तो मैं क्या करूँ?

वज्रधर–यह तुम्हारा अन्तिम निश्चय है?

चक्रधर–जी हाँ, अन्तिम!

यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ लेकर स्टेशन की ओर चल दिये।

थोड़ी देर के बाद निर्मला ने कहा–लल्लू, किसी भ्रष्ट स्त्री को खुद ही न लाएगा। तुमने व्यर्थ उसे चिढ़ा दिया।

वज्रधर ने कठोर स्वर में कहा–अहिल्या के भ्रष्ट होने में अभी कुछ कसर है?

निर्मला–यह तो मैं नहीं जानती; पर इतना जानती हूँ कि लल्लू को अपने धर्म-अधर्म का ज्ञान है। वह कोई ऐसी बात न करेगा जिसमें निन्दा हो।

वज्रधर–तुम्हारी बात समझ रहा हूँ। बेटे का प्यार खींच रहा हो, तो जाकर उसी के साथ रहो। मैं तुम्हें रोकना नहीं चाहता। मैं अकेले भी रह सकता हूँ।

निर्मला–तुम तो जैसे म्यान से तलवार निकाले बैठे हो! वह विमन होकर कहीं चला गया तो?

वज्रधर–तो मेरा क्या बिगड़ेगा? मेरा लड़का मर जाए, तो भी गम न हो!

निर्मला–अच्छा, बस मुँह बन्द करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आये हो। रिश्वतें ले-लेकर हड़पते हो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुँह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो तो पाप नहीं लगता, लड़का एक अनाथिनी की रक्षा करने जाता है, तो नाक कटती है। तुमने कौन-सा कुकर्म नहीं किया? अब देवता बनने चले हो!

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