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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर ने विस्मित होकर कहा–मैं तो समझता हूँ नहीं।

यशोदा०–किसी भी दशा में नहीं?

चक्रधर–मैं तो यही कहूँगा कि किसी दशा में भी नहीं, हालाँकि कुछ लोग परोपकार के लिए असत्य को क्षम्य समझते हैं।

यशोदा०–मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ। मेरा ख़याल है कि पूरा वृत्तान्त सुनकर शायद आप भी मुझसे सहमत हो जाएँ। मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कहीं हैं। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ भी पता नहीं।

चक्रधर ने आँखें बड़ी-बड़ी करके कहा–तो फिर आपके यहाँ कैसे आयी?

यशोदा०–विचित्र कथा है। १५ वर्ष हुए एक बार सूर्य-ग्रहण लगा था। मैं उन दिनों कॉलेज में था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आये थे। तुम तो उस वक़्त बहुत छोटे से रहे होगे। इतना बड़ा मेला फिर नहीं लगा। वहीं हमें यह लड़की एक नाली में पड़ी रोती मिली। न जाने उसके माँ-बाप नदी में डूब गए, या भीड़ में कुचल गए। बहुत खोज की; पर उनका पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गए। ४-५ वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बन्द हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में सन्देह नहीं। उसका शील, स्वभाव और चातुर्य देखकर अच्छे-अच्छे घरों की स्त्रियाँ चकित रह जाती हैं। मैं इधर एक साल से उसके लिए योग्य वर की तलाश में था। ऐसा आदमी चाहता था, जो स्थिति को जानकर उसे सहर्ष स्वीकार करे और पाकर अपने का धन्य समझे, पत्रों में आपके लेख देखकर और आपके सेवा-कार्य की प्रशंसा सुनकर मेरी धारणा हो गई कि आप ही उसके लिए सबसे योग्य हैं। यह निश्चय करके आपके यहाँ आया। मैंने आपसे सारा वृत्तान्त कह दिया। अब आपको अख़्तियार हैं, उसे अपनाएँ या त्यागें। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पाएँगे। मैं यह जानता हूँ कि वीरात्माएँ सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अन्त में उस पर विजय ही पाती हैं।

चक्रधर गहरे विचार में पड़ गए। एक तरफ़ अहिल्या का अनुपम सौन्दर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोक-निन्दा का भय, मन में तर्क-संग्राम होने लगा। यशोदानन्दन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा–आप चिन्तित दिखाई पड़ते हैं और चिन्ता की बात भी है, लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्तव्य और न्याय से मुँह मोड़ें, तो फिर हमारा उद्धार हो चुका! मैं आपसे सच कहता हूँ, यदि मेरे दो पुत्रों में से एक भी कुँवारा होता और अहिल्या उसे स्वीकार करती, तो मैं बड़े हर्ष से उसका विवाह उससे कर देता। आपके सामाजिक विचारों की स्वतन्त्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा और यदि आपने कर्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी।

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