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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आँखें बन्द कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असम्भव था। वह स्वतन्त्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतन्त्रता की पहली सीढ़ी है। उनके मन ने कहा, क्या यह काम ऐसा है कि समाज हँसे? समाज को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए।
अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूँगा–चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़-भाव से बोले–मेरी ओर से आप ज़रा भी शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूँ। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म हैं, लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।

यशोदानन्दन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा–भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।

यह कहकर यशोदानन्दन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे। चक्रधर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी और न चाँदनी कभी इतनी सुहृदय और विहँसित। दाएँ-बाएँ चाँदनी छिटकी हुई थी और उसकी मन्द छटा में अहिल्या रेलगाड़ी के साथ, अगणित रूप धारण किए दौड़ती चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश में जा पहुँचती थी, कभी नदियों की चन्द्रचंचल तरंगों में। यशोदान्दन को न कभी इतना उल्लास हुआ था, न चक्रधर को कभी इतना गर्व, दोनों आनन्द-कल्पना में डूबे हुए थे।

गाड़ी आगरे पहुँची तो दिन निकल आया था। सुनहरा नगर हरे-हरे कुंजों के बीच विश्राम कर रहा था, मानों बालक माता की गोद में सोया हो।

इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएँ याद आ गईं। सारा नगर किसी उजड़े हुए घर की भाँति श्रीहीन हो रहा था।

मुंशी यशोदानन्दन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निग़ाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ़ पहरा था। मुसाफ़िरों के बिस्तरे, सन्दूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानन्दन का भी असबाब देखना शुरू किया।

यशोदानन्दन ने आश्चर्य से पूछा–क्यों साहब, अब यह सख्ती क्यों है?

थानेदार–आप लोगों ने जो काँटे बोए हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फ़साद हो गया है।

यशोदा०–अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुआ?

इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुँचा। यशोदानन्दन ने आगे बढ़कर पूछा–क्यों राधामोहन, यह क्या मामला हो गया? अभी जिस दिन मैं गया हूँ उस दिन तक तो दंगे का कोई लक्षण न था।

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