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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
एक सप्ताह तक गुरुसेवक का ज्वर न उतरा। डॉक्टर रोज़ आते और देखभाल कर चले जाते। कोई दवा देने की हिम्मत न पड़ती। रामप्रिया को सोना और खाना हराम हो गया। दिन-के-दिन और रात-की-रात रोगी के पास बैठी रहती। पानी पिलाना होता, तो खुद पिलाती; सिर में तेल डालना होता, तो खुद डालती, पथ्य देना होता, तो खुद बनाकर देती। किसी नौकर पर विश्वास न था।
अब लोगों को चिन्ता होने लगी। रोगी को यहाँ से उठाकर ले जाने में जोखिम था। सारा परिवार यहीं आ पहुँचा। हरिसेवक ने बेटे की सूरत देखी, तो रो पड़े। देह सूखकर काँटा हो गई थी। पहचानना कठिन था। राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते; पर इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आए हों। रामप्रिया तो रोगी की सेवा-शुश्रुषा में लगी रहती, उसे इसकी परवाह न थी कि कौन आता है और कौन जाता है; लेकिन रोहिणी को राजा साहब की निष्ठुरता असह्य मालूम होती है। वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूँढ़ती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे। आख़िर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी। बात कोई न थी। मनोरमा ने सरल भाव से कहा–यहाँ आप लोगों का जीवन बड़ी शान्ति से कटता होगा। शहर में तो रोज़ एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहती है। कभी इनकी दावत करो, कभी उनकी दावत में जाओ, आज क्लब में जलसा है, आज अमुक विद्वान् का व्याख्यान है। नाकों दम रहता है!
रोहिणी तो भरी बैठी ही थी। ऐंठकर बोली–हाँ बहिन, क्यों न हो! ऐसे प्राणी भी होते हैं, जिन्हें पड़ोसी के उपवास देखकर जलन होती है। तुम्हें पकवान बुरे मालूम होते हैं। हम अभागिनी के लिए सत्तू में भी बाधा! किसी को भोग, किसी को जोग, यह पुराना दस्तूर चला आ रहा है, तुम क्या करोगी?
मनोरमा ने फिर उसी सरल भाव से कहा–अगर तुम्हें वहाँ सुख-ही-सुख मालूम होता है, तो चली क्यों नहीं आतीं? क्या तुम्हें किसी ने मना किया है? अकेले मेरा जी भी घबराया करता है। तुम रहोगी, तो मजे से दिन कट जाएगा।
रोहिणी नाक सिकोड़कर बोली–भला, मुझमें वह हावभाव कहाँ है कि इधर राजा साहब को मुट्ठी में किए रहूँ, उधर हाकिमों को मिलाए रहूँ। यह तो कुछ पढ़ी-लिखी शहरवालियों को ही आता है, हम गँवारिनें यह त्रियाचरित्र क्या जानें। यहाँ तो एक ही की होकर रहना जानती हैं।
मनोरमा खड़ी सन्न रह गई। ऐसा मालूम हुआ कि ज्वाला पैरों से उठी और सिर से निकल गई। ऐसी भीषण मर्मवेदना हुई, मानो किसी ने सहस्र शूलोंवाला भाला उसके कलेजे में चुभो दिया हो। संज्ञाशून्य-सी हो गई। आँखें खुली थीं, पर कुछ दिखाई न देता था; कानों में कोई आवाज़ न आती थी, इसका ज्ञान ही न रहा कि कहाँ आयी हूँ, क्या कर रही हूँ; रात है या दिन? वह दस-बारह मिनट तक इसी भाँति स्तम्भित खड़ी रही। राजा साहब मोटर के पास खड़े उसकी राह देख रहे थे। जब उसे देर हुई तो बुला भेजा। लौंडी ने आकर मनोरमा से संदेशा कहा; पर मनोरमा ने सुना ही नहीं। लौंडी ने एक मिनट के बाद फिर कहा, फिर भी मनोरमा ने कोई उत्तर न दिया। तब लौंडी चली गई। उसे तीसरी बार कुछ कहने का साहस न हुआ। राजा साहब ने दो मिनट और इन्तज़ार किया तब स्वयं अन्दर आये, तो देखा कि मनोरमा चुपचाप मूर्ति की भाँति खड़ी है। दूर ही से पुकारा–नोरा, क्या कर रही हो? चलो, देर हो रही है, सात बजे लेडी काक ने आने का वादा किया है, और छः यहीं बज गए। मनोरमा ने इसका भी कुछ जवाब न दिया। तब राजा साहब ने मनोरमा के पास आकर उसका हाथ पकड़ लिया और कुछ कहना चाहते थे कि उसका चेहरा देखकर चौंक पड़े। वह सर्पदंशित मनुष्य की भाँति निर्निमेष नेत्रों से दीवार की ओर टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो आँखों की राह प्राण निकल रहे हों।
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