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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रोहिणी–जलन होगी मेरी बला को। तुम यहाँ ही थे, तो कौन-सी फूलों की सेज पर सुला दिया था? यहाँ तो ‘जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे विदेश’। भाग्य में रोना बदा था, रोती हूँ।
राजा–अभी तो नहीं रोयी; मगर शौक़ है तो रोओगी।
रोहिणी–तो इस भरोसे भी न रहिएगा। यहाँ ऐसी रोनेवाली नहीं हूँ कि सेंत-मेंत आँखें फोड़ूँ। पहले दूसरे को रुलाकर रोऊँगी।
राजा साहब ने दाँत पीसकर कहा–शर्म और हया छू नहीं गई। कुँजड़िनों को भी मात कर दिया।
रोहिणी–शर्म और हयावाली तो एक वह हैं, जिन्हें छाती से लगाए खड़े हो, हम गँवारिनें भला शर्म और हया क्या जानें?
राजा साहब ने ज़मीन पर पैर पटककर कहा–उसकी चर्चा न करो। इतना बतलाए देता हूँ, तुम एक लाख जन्म लो, तब भी उसको नहीं पा सकती। भूलकर भी उसकी चर्चा मत करो।
रोहिणी–तुम तो ऐसी डाँट बता रहे हो, मानों मैं कोई लौंडी हूँ। क्यों न उसकी चर्चा करूँ? वह सीता और सावित्री होगी, तो तुम्हारे लिए होगी, यहाँ क्या पर्दा डालने लगी? जो बात देखूँगी, सुनूँगी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा।
राजा–अच्छा! तुम अपने को रानी समझे बैठी हो। रानी बनने के लिए जिन गुणों की ज़रूरत है, वे तुम्हें छू भी नहीं गए। तुम विशालसिंह ठाकुर से ब्याही गई थीं और अब भी वही हो।
रोहिणी–यहाँ रानी बनने की साध ही नहीं। मैं तो ऐसी रानियों का मुँह देखना भी पाप समझती हूँ, जो दूसरो से हाथ मिलाती और आँखें मटकाती फिरें।
राजा साहब का क्रोध बढ़ता जाता था; पर मनोरमा के सामने वह अपना पैशाचिक रूप दिखाते हुए शर्माते थे। पर कोई लगती बात कहना चाहते थे, जो रोहिणी की ज़बान बन्द कर दे, वह अवाक् रह जाए। मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दंडस्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी क्यों न कहीं जाए, वह क्षम्य थी। बोले–तुम्हें तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो न सुनने में आएँगी।
रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानो उसके शरों से उन्हें वेध डालेगी, और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी गिराती, वहाँ से चली गयी।
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