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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मुंशी–नहीं हुज़ूर, वह तो शाक्षात् लक्ष्मी है। मैंने तो अपनी ज़िन्दगी भर में ऐसी औरत देखी ही नहीं। एक महीना से ज़्यादा हो गया; पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाए बगैर सोयी हो। सबसे पहले उठती है, और सबके पीछे सोती है। उसको तो मैं कुछ कह नहीं सकता। यह सब लल्लू की शरारत है। जो उसके मन में आता है, वही करता है। मुझे तो कुछ समझता ही नहीं। आगरे में जाकर शादी की। कितना समझाया, पर न माना। मैंने दरगुज़र किया। बहू को धूमधाम से घर लाया। सोचा, जब लड़के से इसका संबंध हो गया, तो अब बिगड़ने और रूठने से नहीं टूट सकता। लड़की का दिल क्यों दुखाऊँ? लल्लू का मुँह फिर भी सीधा नहीं होता। अब न जाने मुझसे क्या करवाना चाहता है।

मनोरमा–ज़रूर कोई बात होगी। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?

मुंशी–इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, हुज़रू, जो किसी ने चूँ तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राए। वह तो सेवा और शील की देवी है; उसे कौन ताना दे सकता है? हाँ, इतना ज़रूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।

मनोरमा ने सिर हिलाते कहा–अच्छा, यह बात है! भला, बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहिल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन रह गई।

मुंशी–उसने तो कभी इस बात की चर्चा तक नहीं की हुज़ूर। (आप बार-बार मना करती हैं कि मुझे हुज़ूर न कहा करो; पर ज़बान से निकल ही आता है।) इसलिए तो मैंने उनके आते ही एक महाराजिन रख ली, जिसमें खाने-पीने का सवाल ही न पैदा हो। संयोग की बात है, महाराजिन ने बहू से तरकारी बघारने के लिए घी माँगा। बहू घी लिए हुए चौके में चली गयी। चौका छूत हो गया। लल्लू ने तो खाना खाया और सबके लिए बाज़ार से पूरियाँ आयीं। बहू तभी से पड़ रही है और लल्लू घर छोड़कर उसे लिये चला जा रहा है।

मनोरमा ने विरक्त भाव से कहा–तो मैं क्या कर सकती हूँ?

मुंशी–आप सब कुछ कर सकती हैं। आप जो कर सकती हैं, वह दूसरा नहीं कर सकता। आप ज़रा चलकर समझा दें। मुझपर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आये हैं, वे सब छोड़ी नहीं जातीं।

मनोरमा–तो न छोड़िए, आपको कोई मज़बूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना भी चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मज़बूर नहीं कर सकती, उसी भाँति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।

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