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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मुंशी–हुज़ूर, इतना निराश न करें। यदि बच्चा चले गये, तो हम दोनों प्राणी तो रोते-रोते मर जाएँगे।
मनोरमा–तो इसकी क्या चिन्ता? एक दिन तो सभी को मरना है, यहाँ अमर कौन है? इतने दिन तो जी लिये; दो-चार साल और जिए तो क्या?
मुंशी–रानीजी, आप जले पर नमक छिड़क रही हैं। इतना तो नहीं होता कि चलकर समझा दें, ऊपर से और ताने देती हैं। बहू का आदर करने में कोई बात उठा नहीं रखते, एक उसका छुआ न खाया, तो इसमें रूठने की क्या बात है? हम कितनी ही बातों से दब गए, तो क्या उन्हें एक बात में भी नहीं दबना चाहिए?
मनोरमा–तो जाकर दबाइए न, मेरे पास क्यों दौड़े आये हैं। मेरी राय अगर पूछते हैं, तो जाकर चुपके से बहू के हाथ से खाना पकवाकर खाइए। दिल से यह भाव बिलकुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊँचे हैं। इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए। जब वह आपकी बहू हो गई, तो बहू ही समझिए। अगर यह छुआछूत का बखेड़ा करना था, तो बहू को लाना ही न चाहिए था। आपकी बहू रूप-रंग में व शील-गुण में किसी से कम नहीं। मैं तो कहती हूँ कि आपकी बिरादरी भर में ऐसी एक भी स्त्री न होगी। अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पायी। अगर खान-पान का ढोंग करना है तो जाकर कीजिए। मैं इस विषय में बाबूजी से कुछ नहीं कह सकती। कुछ कहना ही नहीं चाहती। वह वही कर रहे हैं, जो इस दशा में उन्हें करना चाहिए।
मुंशीजी बड़ी आशा बाँधकर यहाँ दौड़े आये थे। यह फैसला सुना तो कमर टूट-सी गई। फर्श पर बैठ गए और अनाथ भाव से माथे पर हाथ रख कर सोचने लगे, अब क्या करूँ? राजा साहब अभी तक इन दोनों आदमियों की बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला। बोले–आपकी बात तो तय हो गई। अब ज़रा मेरी सुनिए। मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा और रोहिणी में किसी बात पर झड़प हो गई। रोहिणी का स्वभाव तो आप जानते हैं। क्रोध उसकी नाक पर रहता है। न जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊँगी ही नहीं। कितना समझा रहा हूँ पर मानती ही नहीं।
मुंशीजी ने मनोरमा की ओर देखकर कहा–इन्हें भी तो लल्लू ने शिक्षा दी है। न वह किसी की मानता है, न यह किसी की मानती हैं।
मनोरमा ने मुस्कराकर कहा–आपको एक देवी का अपमान करने का दण्ड मिल रहा है।
राजा साहब ने कहा–मुझे?
मनोरमा ने मुँह फेरकर कहा–आपको बहुत से विवाह करने का।
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