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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
उस घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था। चैत की चाँदनी खिली हुई थी। चारपाई से उठकर आँगन में आयी। उसके मन में प्रश्न उठा–क्यों न इसी वक़्त चलूँ? घंटे भर में पहुँच जाऊँगी। चाँदनी छिटकी हुई है, डर किस बात का? राजा साहब नींद में हैं। उन्हें जगाना व्यर्थ है। सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊँगी।
लेकिन फिर ख़याल आया, इस वक़्त जाऊँगी तो लोग क्या कहेंगे। जाकर इतनी रात गए सबको जगाना कितना अनुचित होगा। वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी। पाँच घंटे इसी प्रतीक्षा में जागते रहना कठिन परीक्षा थी। उसने चक्रधर को रोक लेने की निश्चय कर लिया था।
बारे अब की उसे नींद आ गई। पिछले पहर चिन्ता भी थककर सो जाती है। सारी रात करवटें बदलनेवाला प्राणी भी इस समय निद्रा में मग्न हो जाता है लेकिन देर से सोकर भी मनोरमा को उठने में देर नहीं लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरन्त मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबैग में कुछ चीज़ें रखकर वह रवाना हो गई।
चक्रधर भी प्रातःकाल उठे और चलने की तैयारियाँ करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोड़कर जाने का दुःख हो रहा था। पर उस घर में अहिल्या की जो दशा थी, वह उनके लिए असह्य थी। अहिल्या ने कभी शिकायत न की थी। वह चक्रधर के साथ सब कुछ झेलने को तैयार थी; लेकिन चक्रधर को यह किसी तरह गवारा न था कि अहिल्या मेरे घर में परायी बनकर रहे। माता-पिता से भी कुछ कहना-सुनना उन्हें व्यर्थ मालूम होता था; मगर केवल यही कारण उनके यहाँ से प्रस्थान करने का न था। एक कारण और भी था, जिसे वह गुप्त रखना चाहते थे, जिसकी अहिल्या को ख़बर न थी। यह कारण मनोरमा थी। जैसे कोई रोगी रुचि रखते हुए भी स्वादिष्ट वस्तुओं से बचता है कि कहीं उनसे रोग न बढ़ जाए उसी भाँति चक्रधर मनोरमा से भागते थे।
आजकल मनोरमा दिन में एक बार उनके घर ज़रूर आ जाती। अगर खुद न आ सकती थी, तो उन्हीं को बुला भेजती। उनके सम्मुख आकर चक्रधर को अपना संयम, विचार और मानसिक स्थिति, ये सब बालू की मेंड़ की भाँति पैर पड़ते ही खिसकते मालूम होते। सौन्दर्य से कहीं अधिक उसका आत्मसमर्पण घातक था। उन्हें प्राण लेकर भाग जाने ही में कुशल दिखाई देती थी। गाड़ी सात बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और पुस्तकें बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहिल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखाई दी। चक्रधर मारे शर्म के गड़ गए। उन्हें मालूम हुआ था कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी हैं; और वह ज़रूर आएँगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे। उन्हें भय था कि उसके आग्रह को न टाल सकूँगा, घर छोड़ने का कोई कारण न बता सकूँगा और विवश होकर मुझे फिर यहीं रहना पड़ेगा। मनोरमा को देखकर वह सहम उठे; पर मन में निश्चय कर लिया कि इस समय निष्ठुरता का स्वाँग भरूँगा, चाहे वह अप्रसन्न ही क्यों न हो जाए।
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