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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा यह कहती हुई वहाँ से चली गयी। उसे अभी अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था, शहर से अपनी आवश्यक वस्तुएँ मँगवानी थीं। राजा साहब मुंशीजी को लिए हुए बाहर आये और सामनेवाले बाग़ में बेंच पर जा बैठे। मुंशीजी घर जाना चाहते थे, जी घबरा रहा था; पर राजा साहब से आज्ञा माँगते हुए डरते थे। राजा साहब बहुत चिंतित दिखलाई देते थे। कुछ देर तक तो वह सिर झुकाए बैठे रहे, तब गम्भीर भाव से बोले–मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनीं? कितनी मीठी चुटकियाँ लेती है। सचमुच बहुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है। मैंने समझा था, अब दिन आनन्द से कटेंगे और इन चुड़ैलों से पिंड छूट जायेगा; पर नोरा ने मुझे फिर उस विपत्ति में डाल दिया। यहाँ रहकर मैं बहुत दिन जी नहीं सकता। रोहिणी मुझे जीता न छोड़ेगी। आज उसने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा, वह साफ़ कहे देती थी कि वह ईर्ष्या के आवेश में जो कुछ न कर बैठे, वह थोड़ा है। उसकी आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। शायद उसका बस होता, तो मुझे खा जाती। ऐसी कोई तरकीब नहीं सूझती, जिससे नोरा का विचार पलट सकूँ।

मुंशी–हुज़ूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी। आप देख लीजिएगा। उनका जी यहाँ से बहुत जल्दी ऊब जायेगा।

राजा–ईश्वर करे, आपकी बात सच निकले। आपको देर हो रही हो, तो जाइए, मेरी डाक वहाँ से बराबर भेजते रहिएगा, मैं शायद वहाँ रोज़ न आ सकूँगा। यहाँ तो अब नए सिरे से सारा प्रबंध करना है।

आधी रात से ज़्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आयी थी। उस विशाल भवन में, जहाँ सुख और विलास की सामग्रियाँ भरी हुई थीं, उसे अपना जीवन शून्य जान पड़ता था। एक निर्जन, निर्मल वन में वह अकेली खड़ी थी। एक दीपक सामने बहुत दूर पर अवश्य जल रहा था; पर वह जितना ही चलती थी, उतना ही वह दीपक भी उससे दूर होता जाता था। उसने मुंशीजी के सामने तो चक्रधर को समझाने से इनकार कर दिया था, पर अब ज़्यों-ज़्यों रात बीतती थी, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें रोकने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था। उसने सोचा–क्या अहिल्या को साथ विवाह होने से वह उसके हो जाएँगे? क्या मेरा उनपर कोई अधिकार नहीं? वह जाएँगे कैसे? मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी। खींच लाऊँगी। अगर अपने घर में नहीं रह सकते, तो मेरे यहाँ रहने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? मैं उनके लिए अपने यहाँ प्रबन्ध कर दूँगी; मगर बड़े निष्ठुर प्रकृति के मनुष्य हैं। आज मेरे पास इतनी देर बैठे अपनी समिति का रोना रोते रहे, फटे मुँह से भी न कहा कि मैं प्रयाग जा रहा हूँ; मानो मेरा उनसे कोई नाता ही नहीं। मुझसे मिलने के लिए इच्छुक तो वह होंगे, पर कुछ न कर सकते होंगे। वह भी बहुत मज़बूर होकर जा रहे होंगे। वह अहिल्या सचमुच भाग्यवती है। उनके लिए वह भी कितना कष्ट झेलने को तैयार हैं। प्रयाग में न कोई अपना, न पराया, सारी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी।

यह सोचते ही उसे ख़याल आया कि चक्रधर बिलकुल खाली हाथ हैं। पत्नी साथ, खाली हाथ, नई जगह, न किसी से राह न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा! मैंने बड़ी भूल की। मुंशीजी के साथ मुझे चला जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इंतजार कर रहे होंगे।

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