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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर–केवल सिद्धांत के विषय में। माता-पिता से अलग रहना तो मेरा सिद्धांत नहीं।

मनोरमा–तो क्या अकारण घर से भाग जाना आपका सिद्धांत है? सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी बहुत मालूम है। ये लोग अपने संस्कारों से मज़बूर हैं, न तो आप ही उन्हें दबाना ही पसन्द करेंगे। क्यों न अहिल्या को कुछ दिनों के लिए मेरे साथ रहने देते? मैंने जगदीशपुर में ही रहने का निश्चय किया है। आप वहाँ रह सकते हैं। मेरी बहुत दिनों से इच्छा है कि कुछ दिन आप मेरे मेहमान हों। वह भी तो आप ही का घर है। मैं अपना सौभाग्य समझूँगी। मैंने आपसे कभी कुछ नहीं माँगा। आज मेरी इतनी बात मान लीजिए। वह कोई आदमी आता है। मैं ज़रा घर में जाती हूँ। यह बिस्तर वग़ैरह खोलकर रख दीजिए। यह सब सामान देखकर मेरा हृदय जाने कैसा हुआ जाता है।

चक्रधर–नहीं मनोरमा, मुझे जाने दो।

मनोरमा–आप न मानेंगे?

चक्रधर–यह बात न मानूँगा।

मनोरमा–मुझे रोते देखकर भी नहीं?

मनोरमा की आँखों से आँसू गिरने लगे। चक्रधर की आँखें भी डबडबा गईं। बोले–मनोरमा, मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि जल्द लौट आऊँगा।

मनोरमा–अच्छी बात है, जाइए; लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।

यह कहकर उसने अपना हैंडबैग चक्रधर की तरफ़ बढ़ाया।

चक्रधर ने पूछा–इसमें क्या है?

मनोरमा–कुछ भी हो।

चक्रधर–अगर न लूँ तो?

मनोरमा–तो मैं अपने हाथों से आपका बोरिया-बँधना उठाकर घर में रख आऊँगी।

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