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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–आपको इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिये लेता हूँ। शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की ज़रूरत न पड़ेगी। इस बैग का वज़न ही बतला रहा है।
मनोरमा घर में गयी, तो निर्मला बोली–माना कि नहीं बेटी?
मनोरमा–नहीं मानते। मनाकर हार गई।
मुंशी–आपके कहने से न माना, तो फिर किसके कहने से मानेगा!
ताँगा आ गया। चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी। घर के बाकी तीनों प्राणी घर के द्वार पर खड़े रह गए।
२९
सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में निःस्वार्थ सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी। थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गए। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भाँति निःस्पृह हो। और लोग अपना फ़ालतू समय ही सेवा-कार्य के लिए दे सकते थे, द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर के लिए इस काम के सिवा और कोई फ़िक्र न थी। यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं है? काम लेनेवाले बहुतेरे थे। सवारी करने वाले सब थे, पर घास-चारा देनेवाला कोई न था। उन्होंने शहर के निकास पर एक छोटा-सा मकान किराए पर लिया था और बड़ी किफ़ायत से गुज़र करते थे। आगरे में उन्हें जितने रुपये मिले थे, वे मुंशी वज्रधर की भेंट कर दिए थे। वहाँ रुपये का नित्य अभाव रहता था। काम मिलने पर कम तंगी रहती थी, क्योंकि ज़रूरतें घटा ली जाती थीं। अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थीं। क्योंकि ज़रूरतें बढ़ा ली जाती थीं।
चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा था कि गृहस्थी में पड़कर कुछ-न-कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए, अपने लिए उन्हें कोई चिन्ता न थी, लेकिन अहिल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे। वह अब बहुधा चिन्तित दिखाई देती, यों वह कभी शिकायत न करती थी; पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा में संतुष्ट नहीं है। वह गहने-कपड़े की भूखी न थी, सैर-तमाशे का उसे चस्का नहीं था; पर खाने-पीने की तकलीफ़ उससे न सही जाती थी! वह सब कुछ सह सकती थी। उसकी सहन शक्ति का वारपार न था। चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था। जब और लोग पहले अपने घर में चिराग़ जलाकर मसज़िद में जलाते हैं। तो वही क्यों अपने घर में अँधेरा छेड़कर मसज़िद में चिराग़ जलाने जलाएँगे? औरों को अगर मोटर, फिटन चाहिए, तो क्या यहाँ पैरगाड़ी भी न हो? दूसरों को पक्की हवेलियाँ चाहिए, तो क्या यहाँ साफ़-सुथरा मकान भी न हो? दूसरे ज़ायदाद पैदा करते हैं, तो क्या यहाँ भोजन भी न हो? आख़िर प्राण देकर तो सेवा नहीं की जाती। अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को सन्तोष हो जाता, आँसू पुँछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था। जब खाली ढोल पीटकर भी, अपना घर भरकर भी यश कमाया जा सकता है, तो इस त्याग और विराग की ज़रूरत ही क्या? जनता धनियों का जितना मान-सम्मान करती है, उतना सेवकों का नहीं। सेवा-भाव के साथ धन भी आवश्यक है। दरिद्र सेवक, चाहे वह कितने ही सच्चे भाव से क्यों न काम करे, चाहे वह जनता के लिए प्राण ही क्यों न दे दे, उतना यश नहीं पा सकता, जितना एक धनी आदमी अल्प-सेवा करके पा जाता है। अहिल्या को चक्रधर का आत्म-दमन इसीलिए बुरा लगता था और वह मुँह से कुछ न कहकर भी दुखी रहती थी। सेवा स्वयं अपना बदला है, यह आदर्श उसकी समझ में न आता था।
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