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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या–वह अच्छी तो हो जाएँ। लौटने की बात पीछे देखी जाएगी। तो तुम जाकर डॉक्टर साहब को तैयार करो। मैं यहाँ सब सामान तैयार कर रही हूँ।

दस बजते-बजते ये लोग यहाँ से डाक पर चले। अहिल्या खिड़की से पावस का मनोहर दृश्य देखती थी, चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से बाहर कूद पड़ने के लिए ज़ोर लगा रहा था।

३०

चक्रधर जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गए थे। राजभवन के द्वार पर हज़ारों आदमियों की भीड़ थी। अन्न-दान दिया जा रहा था। और कँगले एक-पर-एक टूट पड़ते थे। सिपाही धक्के-पर-धक्के देते थे, पर कँगलों का रेला कम न होता था। शायद वे समझते थे कि कहीं हमारी बारी आने से पहले ही सारा अन्न समाप्त न हो जाए, अन्न कम हो जाने पर थोड़ा-थोड़ा देकर ही न टरका दें। मुंशी वज्रधर बार-बार चिल्ला रहे थे–क्यों एक दूसरे पर गिरे पड़ते हो? सबको मिलेगा, कोई खाली न जाएगा, सैकड़ों बोरे भरे हुए हैं। लेकिन उनके आश्वासन का कोई असर न दिखाई देता था। छोटी-सी बस्ती में इतने आदमी भी मुश्किल से होंगे! इतने कंगाल न जाने कहां से फट पड़े थे।

सहसा मोटर की आवाज़ सुनकर सामने देखा, तो भीड़ को हटाकर दौड़े और चक्रधर को गले लगा लिया। पिता-पुत्र दोनों रो रहे थे, पिता में पुत्र-स्नेह था, पुत्र में पितृ-भक्ति थी; किसी के दिल में ज़रा भी मैल न था, फिर भी वे आज पाँच साल के बाद मिल रहे हैं। कितना घोर अनर्थ है।

अहिल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कुतूहल से दोनों आदमियों का रोना देख रहा था, उसने समझा, इन दोनों में मार-पीट हुई है। शायद दोनों ने एक दूसरे का गला पकड़कर दबाया है, तभी तो यों रो रहे हैं। बाबूजी का गला दुख रहा होगा। यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया। मुंशीजी उसे रोते देखकर प्रेम से बढ़े कि उसको गोद में लेकर प्यार करूँ, तो बालक ने मुँह फेर लिया। जिसने अभी-अभी बाबूजी को मारकर रुलाया है, वह क्या मुझे न मारेगा? कैसे विकराल रूप है? अवश्य मारेगा।

अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखाई दिए। सूरत से नैराश्य झलक रही थी। शरीर भी दुर्बल था। आते ही आते उन्होंने चक्रधर को गले लगाकर पूछा–मेरा तार कब मिल गया था?

चक्रधर–कोई आठ बजे मिला होगा। पढ़ते ही मेरे होश उड़ गए। रानीजी की क्या हालत है?

राजा–वह तो अपनी आँखों देखोगे, मैं क्या कहूँ। अब भगवान् ही का भरोसा है। अहा! यह शंखधर महाशय हैं।

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