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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफ़ी धन मिलता था। योरुप और अमेरिका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनका आदर भी कम न था; पर सेवा-कार्य में जो संतोष और शान्ति मिलती थी, वह अब मयस्सर न थी। अपने दीन, दुःखी एवं पीड़ित बन्धुओं की सेवा करने में जो गौरवयुक्त आनन्द मिलता था, वह सभ्य समाज की दावतों में न प्राप्त होता था। मगर अहिल्या सुखी थी। वह अब सरल बालिका नहीं, गौरवशील युवती थी–गृह-प्रबन्ध में कुशल, पति-सेवा में पगवीण, उदार, दयालु और नीति-चतुर। मज़ाल न थी कि नौकर उसकी आँख बचाकर एक पैसा भी खा जाए। उसकी सभी अभिलाषाएँ पूरी हो जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुन्दर बालक भी दे दिया। रही-सही कसर भी पूरी हो गई।
इस प्रकार पाँच साल गुज़र गए।
एक दिन काशी से राजा विशालसिंह का तार आया। लिखा था–‘मनोरमा बहुत बीमार है। तुरन्त आइए। बचने की कम आशा है।’ चक्रधर के हाथ से काग़ज़ छूटकर गिर पड़ा। अहिल्या सँभाल न लेती, तो शायद वह खुद गिर पड़ते। ऐसा मालूम होता मानो मस्तक पर किसी ने लाठी मार दी हो। आँखों के सामने तितलियाँ सी उड़ने लगीं। एक क्षण के बाद सँभलकर बोले–मेरे कपड़े बक्स में रख दो, मैं इसी गाड़ी से जाऊँगा।
अहिल्या–यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि वहाँ सब कुशल है।
चक्रधर–क्या कहा जाए? कुछ नहीं, यह सब गृहकलह का फल है। मनोरमा ने राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने वानों से छेद-छेदकर उसकी जान ले ली। राजा साहब उस पर जान देते थे। यही सारे उपद्रव की जड़ है। अहिल्या, वह स्त्री नहीं, देवी है।
अहिल्या–हम लोगों के यहाँ चले आने से शायद नाराज़ हो गईं। इतने दिनों में केवल मुन्नू के जन्मोतसव पर एक पत्र लिखा था।
चक्रधर–हाँ, उनकी यही इच्छा थी कि हम सब उनके साथ रहें।
अहिल्या–कहो तो मैं भी चलूँ? देखने को जी चाहता है। उनकी शील और स्नेह कभी न भूलेगा।
चक्रधर–योगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा तो यहाँ और कोई डॉक्टर नहीं।
अहिल्या–अच्छा तो होगा। डॉक्टर साहब से तुम्हारी दोस्ती है खूब दिल लगाकर दवा करेंगे।
चक्रधर–मगर तुम मेरे साथ लौट न सकोगी, यह समझ लो। मनोरमा तुम्हें इतनी जल्दी न आने देगी।
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