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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश में दीवानखाने में जा पहुँचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ़्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बालक को कन्धे पर बिठाकर उच्च स्वर से कहा–मित्रों; यह देखो; ईश्वर की असीम कृपा से मेरा नवासा घर बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी? वही सुखदा आज मुझे मिल गई है और यह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गारद से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे, नौबतखाने में कह दो, नौबत बजे। आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।

यह हुक्म देकर राजा साहब बालक को गोद में लिये ठाकुरद्वारे में जा पहुँचे। वहाँ इस समय ठाकुरजी के भोग की तैयारियाँ हो रही थीं। साधु-संतों की मंडली ज़मा थी। एक पंडित कोई कथा कह रहे थे, लेकिन श्रोताओं के कान उसी घंटी की ओर लगे थे, जो ठाकुरजी की पूजा की सूचना देगी। और जिसके बाद तर माल के दर्शन होंगे। सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दंडवत करने लगे। इतनी श्रद्धा से उन्होंने अपने जीवन में कभी ईश्वर की प्रार्थना न की थी। आज उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। उस अनुराग में उन्हें समस्त आनन्द से नाचता हुआ मालूम हुआ। ठाकुरजी स्वयं अपने सिंहासन से उतरकर बालक को गोद में लिये हुए हैं। आज उनकी चिरसंचित कामना पूरी हुई और इस तरह पूरी हुई जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी। यह ईश्वर दया नहीं तो और क्या है।

पुत्र रत्न के सामने संसार की सम्पदा क्या चीज़ है? अगर पुत्र रत्न न हो, तो संसार की सम्पदा का मूल्य ही क्या है, जीवन की सार्थकता ही क्या है, कर्म का उद्देश्य ही क्या है? अपने लिए कौन दुनिया में मनसूबे बाँधता है? अपना जीवन तो मनसूबों में ही व्यतीत हो जाता है, यहाँ तक कि जब मनसूबे पूरे होने के दिन आते हैं, तो संसार यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पुत्र ही आकांक्षाओं का स्रोत, चिन्ताओं का आगार प्रेम का बन्धन और जीवन का सर्वस्व है। वही पुत्र आज विशालसिंह को मिल गया था। उसे देख-देखकर उनकी आँखें आनन्द से उमड़ आती थीं, हृदय पुलकित हो रहा था। इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था। अब उनके लिए संसार ही स्वर्ग था।

पुज़ारी ने कहा–भगवान् राजकुँवर को चिरंजीवी करें!
राजा ने अपनी हीरे की अँगूठी उसे दे दी, एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे ज़मीन मिल गई।

ठाकुरद्वारे से जब वह घर आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं, और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही हैं। उसके मुख-मंडल पर हार्दिक उल्लास की कांति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है; जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई थी।

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