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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर विमन भाव से खड़े थे, मनोरमा अंगों फूली न समाती थी। अहिल्या अभी तक खड़ी रो रही थी। सहसा रोहिणी कमरे के द्वार से जाती हुई दिखाई दी। राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आये और बोले–कहाँ जाती हो रोहिणी? मेरी सुखदा मिल गई। आओ, देखो, यह उसका लड़का है।
रोहिणी वहीं ठिठक गई और सन्देहात्मक भाव से बोली–क्या स्वर्ग से लौट आयी है, क्या?
राजा–नहीं, नहीं आगरे में थी। देखो, यह उसका लड़का है। मेरी सूरत इससे कितनी मिलती है! आओ, सुखदा को देखो। मेरी सुखदा खड़ी है।
रोहिणी ने वहीं खड़े-खड़े उत्तर दिया–यह आपकी सुखदा नहीं, रानी मनोरमा की माया-मूर्ति है, जिसके हाथों में आप कठपुतली की भाँति नाच रहे हैं।
राजा ने विस्मित होकर कहा–क्या यह मेरी सुखदा नहीं है? कैसी बात कहती हो? मैंने खूब परीक्षा करके देख लिया है।
रोहिणी–ऐसे मदारी के खेल बहुत देख चुकी हूँ। मदारी भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती है। यह सब माया लीला है।
राजा–क्यों व्यर्थ किसी पर आक्षेप करती हो, रोहिणी? मनोरमा को भी तो वे बातें नहीं मालूम हैं, जो सुखदा ने मुझसे बता दीं। भला, किसी गैर की लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनाएगी? इसमें उसका क्या स्वार्थ हो सकता है।
रोहिणी–यह हमारी जड़ खोदना चाहती है। क्या आप इतना भी नहीं समझते? चक्रधर को राजा बनाकर वह आपको कोने में बैठा देगी। यही बालक, जो आपकी गोद में है, एक दिन आपका शत्रु होगा। यह सब सधी हुई बातें हैं। जिसे आप मिट्टी की गऊ समझते हैं, वह आपके जैसों को बाज़ार में बेच सकती है। किसकी बुद्धि इतनी ऊँची उड़ेगी।
राजा ने व्यग्र होकर कहा–अच्छा, अब चुप रहो, रोहिणी, मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारे हृदय में मेरे अमंगल के सिवा और किसी भाव के लिए स्थान नहीं है; आज न जाने किसके पुण्य-प्रताप से ईश्वर ने मुझे यह शुभ दिन दिखाया है, और तुम मुँह से ऐसे कुवचन निकाल रही हो। ईश्वर ने मुझे वह सब कुछ दे दिया जिसकी मुझे स्वप्न में भी आशा न थी। यह बाल-रत्न मेरी गोद में खेलेगा, इसकी किसे आशा थी; और ऐसे शुभ अवसर पर तुम यह विष उगल रही हो। मनोरमा के पैर की धूल की बराबर भी तुम नहीं कर सकतीं। जाओ, मुझे तुम्हारा मुख देखते हुए रोमांच होता है। तुम स्त्री के रूप में पिशाचिनी हो।
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