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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
देवप्रिया ने महेन्द्र को प्रेममुग्ध नेत्रों से देखकर कहा–प्राणनाथ, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं।
देवप्रिया की प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के चरणों पर सिर रख दूँ और कहूँ कि तुमने मेरा उद्धार कर दिया; मुझे वह अलभ्य वस्तु प्रदान कर दी, जो आज तक किसी ने न पायीं थी, जो सर्वदा से मानव कल्पना का स्वर्ण स्वप्न रही है; पर संकोच ने ज़बान बन्द कर दी।
महेन्द्र–सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा?
देवप्रिया–प्रियतम, यह तुम क्यों पूछते हो? मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास न होता, तो आती ही क्यों?
देवप्रिया को अपनी मुख छवि देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हो रही थी। एक शीशे के टुकड़े के लिए इस समय वह क्या कुछ न दे डालती?
सहसा महेन्द्र फिर बोले–तुम्हें मालूम है, इस क्रिया में कितने दिन लगे?
देवप्रिया–मैं क्या जानूँ कि कितने दिन लगे?
महेन्द्र–पूरे तीन साल।
देवप्रिया–तीन साल! तीन साल से तुम मेरे लिए यह तपस्या कर रहे हो?
महेन्द्र–तीन क्या, अगर तीस साल भी यह तपस्या करनी पड़ती, तो भी मैं न घबराता।
देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा–ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह ‘चार दिन की चटक चाँदनी फिर अँधेरा पाख’ हो जाए?
महेन्द्र–नहीं प्रिये, इसकी कोई शंका नहीं।
देवप्रिया–और हम इस वक़्त हैं कहाँ?
महेन्द्र–एक पर्वत की गुफा में। मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया। राज्य की चिन्ताओं में पड़कर मैं यह सिद्ध कभी न प्राप्त कर सकता था। तुम्हारे लिए मैं ऐसे-ऐसे कई राज त्याग सकता था।
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