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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


देवप्रिया को अब ऐसी वस्तु मिल गई थी, जिसके सामने राज्य वैभव की कोई हस्ती न थी। वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यन्त सुखद जान पड़ी। प्रेम का आनन्द भोगने के लिए स्वामी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए यहाँ जितने मौके थे, उतने राजभवन में कहाँ मिल सकते थे? उसे विलास की लेश मात्र भी आशंका न थी, वह पतिप्रेम का आनन्द उठाना चाहती थी। प्रसन्न होकर बोली–यह तो मेरे मन की बात हुई।

महेन्द्र ने चकित होकर पूछा–मुझे खुश करने के लिए यह बात कह रही हो या दिल से? मुझे तो इस विषय में बड़ी शंका थी।

देवप्रिया–नहीं प्राणनाथ, दिल से कह रही हूँ। मेरे लिए जहाँ तुम हो, वहीं सब कुछ है।

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा–अभी तुमने इस जीवन के कष्टों का विचार नहीं किया। ज्येष्ठ वैशाख की लू और लपट, शीतकाल की हड्डियों में चुभने वाली हवा और वर्षा की मूसलाधार वृष्टि की कल्पना तुमने नहीं की। मुझे भय है, शायद तुम्हारा कोमल शरीर उन कष्टों को न सह सकेगा।

देवप्रिया ने निश्शंक भाव से कहा–तुम्हारे साथ मैं सब कुछ आनन्द से सह सकती हूँ।

उसी वक़्त देवप्रिया ने गुफा से बाहर निकलकर देखा, तो चारों ओर अंधकार छाया हुआ था; लेकिन एक ही क्षण में उसे वहाँ की सब चीज़ें दिखाई देने लगीं। अंधकार छाया हुआ था; पर उसकी आँखें उसमें प्रवेश कर गई थीं। सामने ऊँची पहाड़ियों की श्रेणियाँ अप्सराओं के विशाल भवनों की-सी मालूम होती थीं। दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बायीं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भाँति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी। फिर उसे गुफ़ा से नीचे उतरने का मार्ग साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा। अंधकार वही था; पर उसमें कितना प्रकाश आ गया था।

उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई–मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा?

३२

राज विशालसिंह ने इधर कई साल से राजकाज छोड़-सा रखा था! मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। गुरुसेवकसिंह भी अपने रागरंग में मस्त थे। सेवा और प्रेम का आवरण उतारकर अब वह पक्के विलायती हो गए थे। प्रजा के सुख-दुख की चिन्ता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठंडा पड़ गया। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज़ की सुधि न थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी मनोरमा से अलग होना असह्य था। जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाए और रात-दिन उसी चिन्ता में पड़ा रहे, वह दशा राजा साहब की थी। मनोरमा उनका जीवन धन थी। उनकी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो ना जाए, यही भय उन्हें बना रहता था। अन्य रानियों की अब वह खुशामद करते रहते थे, जिससे मनोरमा को कुछ कह न बैठें। मनोरमा को बात कितनी लगती है, इसका अनुभव उन्हें हो चुका था। रोहिणी के एक व्यंग्य ने उसे काशी छोड़कर इस गाँव में ला बिठाया था। वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था। इसलिए रानियों को खुश रखना चाहते थे, विशेषकर रोहिणी को, हालाँकि वह मनोरमा को जलाने का कोई अवसर हाथ से न जाने देती थी।

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