|
उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
||||||||
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लेकिन अहिल्या इस जीवन का चरम सुख भोग कर रही थी। बहुत दिनों तक दुःख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उसमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गए थे और उनकी याद दिलाने में उसे दुःख होता था। उसका रहन-सहन बिल्कुल बदल गया था। वह अच्छी-खासी अमीरजादी बन गई थी। सारे दिन अमोद-प्रमोद के सिवा उसे दूसरा काम न था। पति के दिल पर क्या गुज़र रही है, यह सोचने का कष्ट क्यों उठाती? जब वह खुश थी, तब उसके स्वामी भी अवश्य खुश होंगे। राज्य पाकर कौन रोता है? उसकी मुख छवि अब पूर्ण चन्द्र की भाँति तेज़ोमय हो गई थी। उसकी सरलता, वह नम्रता, वह कर्मशीलता ग़ायब हो गई थी। चतुर गृहिणी अब एक सगर्वा, यौवन वाली कामिनी थी जिसकी आँखों से मद छलका पड़ता था। चक्रधर ने जब उसे पहली बार देखा था, तब वह एक मुर्झाती हुई कली थी और मनोरमा एक खिला हुआ प्रभात की स्वर्गमयी किरणों से विहँसित फूल। अब मनोरमा अहिल्या हो गई थी और अहिल्या मनोरमा। अहिल्या पहर दिन चढ़े अँगड़ाइयाँ लेती हुई शयनागार से निकलती। मनोरमा पहर रात ही से घर राज्य का कोई-न-कोई काम करने लगती। शंखधर अब मनोरमा ही के पास रहता था, वही उसका लालन-पालन करती थी। अहिल्या केवल कभी-कभी उसे गोद में लेकर प्यार कर लेती, मानो किसी दूसरे का बालक हो। बालक भी अब उसकी गोद में आते हुए झिझकता। मनोरमा ही अब उसकी माता थी। मनोरमा की जान अब उसमें थी और उसकी मनोरमा में। कभी-कभी एकांत में मनोरमा बालक को गोद में लिये घंटों मुँह छिपाकर रोती। उसके अन्तस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आँखों से आँसू की चार बूँदें निकल पड़ती थीं। बालक भी उसे देखकर रोने लगता। तब मनोरमा आँसुओं को पी जाती और हँसने की चेष्टा करके बालक को छाती से लगा लेती। उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गम्भीर विचार में रुपांतरित हो गई थी। वह अहिल्या से दबती थी। पर अहिल्या उससे खिंची-सी रहती। कदाचित् वह मनोरमा के अधिकारों को छीनना चाहती थी, उसके प्रबन्ध में दोष निकालती रहती। पर रानी मनोरमा अपने अधिकारों से जी जान से चिमटी हुई थीं, उनका अल्पांश भी न त्यागना चाहती थीं, बल्कि दिनों दिन उन्हें बढ़ाती जाती थीं। यही उसके जीवन का आधार था।
अब चक्रधर आहिल्या को अपने मन की बातें कभी न कहते थे। वह संपदा उनका सर्वनाश किए डालती थी। क्या अहिल्या यह सुख-विलास छोड़कर मेरे साथ चलने पर राजी होगी? उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हँसी में न उड़ा दे, या मुझे रुकने के लिए मज़बूर न करे। अगर वह दृढ़ भाव से एक बार कह देगी कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, तो वह कैसे जाएँगे? उन्हें इसका क्या अधिकार है कि उसे अपने साथ विपत्ति झेलने के लिए कहें? उन्होंने कहा, और वह अगर धर्मसंकट में पड़कर उनके साथ चलने पर तैयार भी हो गई, तो मनोरमा शंखधर को कब छोड़ेगी? क्या शंखधर को छोड़कर अहिल्या उनके साथ जाएगी? जाकर प्रसन्न रहेगी? अगर बालक को मनोरमा ने दे भी दिया तो क्या वह इस वियोग की वेदना सह सकेगी? इसी प्रकार के कितने ही प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भाँति अपने कर्तव्य का निश्चय न कर सकते थे, केवल एक बात निश्चित थी–वह इन बन्धनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे, सम्पत्ति पर अपने सिद्धान्तों को भेंट न कर सकते थे।
|
|||||

i 










