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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नवीन उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था, किसके लिए करूँ? कौन रोनेवाला बैठा  हुआ है? प्रतिमा ही न थी, तो मन्दिर की रचना कैसे होती? अब वह प्रतिमा आ गई थी, जीवन का लक्ष्य मिल गया था। वह राज-काज से क्यों विरक्त रहते? मुंशीजी अब तक तो दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे। ऐसा मालूम होता था कि अब वही राजा हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुंशीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं। मुंशीजी को देखते ही बेचारे थर-थर काँपने लगते थे। भाग्य किसी का चमके, तो ऐसे चमके! कहाँ पेंशन के पचीस रुपयों गुज़र-बसर होती थी, कहाँ अब रियासत के मालिक थे। राजा साहब भी उनका अदब करते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते–यहाँ तुम्हारे हथकंडे एक न चलेंगे, याद रखना। जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ। एक-एक को निगल जाऊँगा। अब वह मुंशीजी नहीं है, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे। अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं।

इसमें भला किसको आपत्ति करने का साहस हो सकता था? हाँ, सुनने वालों को ये बातें ज़रूर बुरी मालूम होती थीं। चक्रधर के कानों में कभी ये बातें पड़ जातीं, तो वह ज़मीन में गड़-से-जाते थे। मारे ल्ज्जा के उनकी गर्दन झुक जाती थी। वह आजकल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गये थे। वहाँ माता की बातें सुनकर उनकी फिर जाने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना-जुलना उन्होंने बहुत कम कर दिया था, हालाँकि अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। वास्तव में यहाँ का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपनी शान्ति-कुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहाँ आये दिन कोई-न-कोई बात हो ही जाती थी, जो दिन-भर उनके चित्त को व्यग्र रखने को काफ़ी होती थी। कहीं कर्मचारियों में जूती-पैज़ार होती थी, कहीं ग़रीब असामियों पर डाँट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फ़साद। उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों की तम्बीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहाँ उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।

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