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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले। गर्मी के दिन थे। जी बेचैन था। हवा लगी तो देहात की तरफ़ जाने का जी चाहा। बढ़ते ही गये, यहाँ तक कि अँधेरा हो गया। शोफ़र को साथ न लिया था। ज़्यों-ज़्यों आगे बढ़ते थे, सड़क खराब आती जाती थी। सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा साँड़ दिखाई दिया। उन्होंने बहुत शोर मचाया; पर साँड़ न हटा। जब समीप आने पर भी साँड़ राह में खड़ा ही रहा, तो उन्होंने कतराकर निकल जाना चाहा; पर साँड़ सिर झुकाए फों-फों करता फिर सामने आ खड़ा हुआ। चक्रधर हाथ में छड़ी लेकर उतरे कि उसे भगा दें, पर वह भागने के बदले उनके पीछे दौड़ा। कुशल यह हुई कि सड़क के किनारे एक पे़ड मिल गया; नहीं तो उनकी जान जाने में कोई संदेह ही न था। जी छोड़कर भागे और छड़ी फेंक, पेड़ की शाख पकड़कर लटक गए। साँड़ एक मिनट तक तो पेड़ से टक्कर लेता रहा; पर जब चक्रधर न मिले, तो वह मोटर के पास लौट गया और उसे सींगों से पीछे को ठेलता हुआ दौड़ा। कुछ दूर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वक्ष से टकरा गई। अब साँड़ पूँछ उठा-उठाकर कितना ही ज़ोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है; पर वह जगह से नहीं हिलती। तब उसने बगल में जाकर इतनी ज़ोर से टक्कर लगायी को मोट उलट गई। फिर भी उसका पिंड न छोड़ा। कभी उसके पहियों से टक्कर लेता, कभी पीछे की तरफ़ ज़ोर लगाता। मोटर के पहिये फट गए, कई पुर्जे टूट गए; पर साँड़ बराबर उस पर आघात किए जाता था। चक्रधर साख पर बैठे तमाशा देख रहे थे। मोटर की तो फ़िक्र न थी, फ़िक्र यह थी, कि घर कैसे लौटेंगे। चारों ओर सन्नाटा था। कोई आदमी न जाता-आता था। अभी मालूम नहीं, साँड़ कितनी देर तक मोटर से लड़ेगा और कितनी देर तक उन्हें वृक्ष पर टँगे रहना पड़ेगा। अगर उनके पास इस वक़्त बंदूक होती, तो साँड़ को मार ही डालते। दिल में साँड़ छोड़ने की प्रथा पर झुँझला रहे थे। अगर मालूम हो जाए कि किसका सांड़ है, तो सारी ज़ायदाद बिकवा लूँ। पाजी ने साँड़ छोड़ रखा है!

साँड़ ने जब देखा कि शत्रु की धज्जियाँ उड़ गईं और अब वह शायद फिर न उठे, तो डकराता हुआ एक तरफ़ को चला गया, तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी हुई थी। जब तक सीधी न हो जाए, यह पता कैसे चले कि क्या चीज़ें टूट गई हैं, और अब वह चलने योग्य है या नहीं। अकेले मोटर को सीधी करना एक आदमी का काम न था। सोचने लगे, आदमियों को कहाँ से लाऊँ। इधर से तो शायद अब रात भर कोई न निकलेगा। पूर्व की ओर थोड़ी दूर पर एक गाँव था। चक्रधर उसी तरफ़ चले। रास्ते में इधर-उधर ताकते जाते थे कि कहीं साँड़ न आता हो, नहीं तो यहाँ सपाट  मैदान में कहीं वृक्ष भी नहीं हैं; मगर साँड़ न मिला और वह एक गाँव में पहुँचे। बहुत छोटा-सा ‘पुरवा’ था। किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आये थे। कोई बैलों को सानी-पानी दे रहा था, कोई खाने जा रहा था, कोई गाय दुह रहा था। सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा–यह कौन गाँव है?

एक आदमी ने जवाब दिया है–भैंसोर।

चक्रधर–किसका गाँव है?

किसान–महाराज का। कहाँ से आते हो?

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