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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
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देवप्रिया को उस गुफा में रहते कई महीनें गुज़र गए। वह तन-मन से पति-सेवा में रत रहती। प्रातःकाल नीचे जाकर नदी से पानी लाती; पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़ती और जंगली फलों को उबालती। बीच-बीच में महेन्द्र कुमार कई-कई दिनों के लिए कहीं चले जाते थे। देवप्रिया अकेले गुफा में बैठी उनकी राह देखा करती, पर महेन्द्र को वन-वन में घूमने से इतना अवकाश ही न मिलता कि दो-चार पल के लिए उसके पास भी बैठ जाएँ। रात को योगाभ्यास किया करते थे। न-जाने कब कहाँ चले जाते; न जाने कब कैसे चले आते, इसका देवप्रिया को कुछ भी पता न चलता। उनके जीवन का रहस्य उसकी समझ में न आता था। उस गुफा में भी उन्होंने न जाने कहाँ से वैज्ञानिक यन्त्र ज़मा कर लिए थे और दिन को भी जब घर पर रहते, तो उन्हीं यन्त्रों से कोई-न-कोई प्रयोग किया करते। उनके पास सभी कामों के लिए समय था। अगर समय न था, तो केवल देवप्रिया से बातचीत करने का! देवप्रिया की समझ में कुछ न आता कि इनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया है। वह प्रेम-भाव कहाँ गया? अब तो उससे सीधे मुँह बोलते तक नहीं। उससे कौन-सा अपराध हुआ?
देवप्रिया पति को वन में पक्षियों के साथ विहार करते, हिरणों के साथ खेलते, सर्पों को नाचते, नदी में जलक्रीड़ा करते देखती। प्रेम की इस अमोघ राशि से उस के लिए मुट्ठी भर भी नहीं? उसने कौन-सा अपराध किया है? उससे तो वह बोलते तक नहीं।
ऐसी अनिंद्य सुन्दरी उसने स्वयं न देखी थी। उसने एक-से-एक रूपवती रमणियाँ देखी थीं; पर अपने सामने कोई उसकी निग़ाह में न जँचती थी। वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पहनती, आँखों से हँसती, हाव-भाव, कटाक्ष सब कुछ करती; पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी। तब वह झुँझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवनदान क्यों दिया? यह बला क्यों मेरे सिर मढ़ी? जिस यौवन को पाकर उसने एक दिन अपने को संसार में सबसे सुखी समझा था, उसी यौवन से अब उसका जी जलता था। वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में आश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौंदर्य को बासी हार की भाँति उतारकर फेंक देती; पर कौन इसका विश्वास दिलाएगा?
एक दिन देवप्रिया ने महेन्द्र से कहा–तुमने मेरी काया तो बदल दी; पर मेरा मन क्यों न बदल दिया?
महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया–जब तक पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित न हो जाए, मन की भावनाएँ नहीं बदल सकतीं।
इन शब्दों का आशय जो कुछ हो; पर देवप्रिया ने यह समझा कि यह मुझसे केवल मेरे पूर्व संस्कारों के कारण घृणा करते हैं। उसका पीड़ित हृदय इस अन्याय से विकल हो उठा। आह! यह इतने कठोर हैं! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं; तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दंड देने के लिए मेरा कायाकल्प किया? प्रलोभनों में घिरी हुई अबला के प्रति इन्हें ज़रा भी सहानुभूति नहीं! वह वाक्य शूल के समान उसके हृदय में चुभने लगा। पति में वह श्रद्धा न रही। जीवन से विरक्त हो गई। पतिप्रेम का सुख भोगने के लिये ही उसने अपना राज-त्याग किया था; पूर्व संस्कारों का दंड भोगने के लिए नहीं। उसने समझा था, स्वामी मुझ पर दया करके मेरा उद्धार करने ले जा रहे हैं। उनके हाथों यह दंड सहना उसे स्वीकार न था। अपने पूर्व जीवन पर लज्जा थी, पश्चात्ताप था, पर पति के मुख से यह व्यंग्य न सुनना चाहती थी। वह संसार की सारी विपत्ति सह सकती थी, केवल पतिप्रेम से वंचित रहना उसे असह्य था। उसने सोचना शुरू किया, क्यों न चली जाऊँ? पति से दूर हटकर कदाचित् वह शान्त रह सकती थी। दुख़ती हुई आँखों की अपेक्षा फूटी आँखें ही अच्छी; पर इस वियोग की कल्पना ही से उसका मन भयभीत हो जाता था।
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