लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा–सरकार ही बाबू चक्रधरसिंह हैं। धन्य भाग थे कि सरकार के आज दर्शन हुए।

यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गाँव में ख़बर दे आया। एक क्षण में गाँव से सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल-सी मच गई। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आए हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात् भगवान् हैं।

धन्नासिंह ने कहा–मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में न जाने क्या-क्या बक गया।

दूसरा ठाकुर बोला–सरकार अपने को बोल देते, तो हम मोटर को कंधों पर लाद कर ले चलते। हुज़ूर के लिए जान हाज़िर है। मन्नासिंह! मर्द आदमी, हाथ झटककर उठ खड़े हो, तुम्हारे तो भाग्य खुल गए।

मन्नासिंह ने कराहकर मुस्कराते हुए कहा–सरकार देखने में तो दुबले-पतले हैं; पर आपके हाथ-पाँव लोहे के हैं। मैंने सरकार से भिड़ना चाहा; पर आपने एक ही अड़ंगे में मुझे दे पटका।

धन्नासिंह–अरे पागल, भाग्यवानों के हाथ-पाँव में ताकत नहीं होती, अकबाल में ताकत होती है। उससे देवता तक काँपते हैं।

चक्रधर को इन ठाकुर सुहाती बातों में ज़रा भी आनन्द न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था अपमान को निगल जाना चरित्रपतन की अंतिम सीमा है और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? साल भर पहले कदाचित् वह मन्नासिंह के पास आकर सहायता के लिए मिन्नत-समाजत करते; अगर रात भर रहना भी पड़ता, तो रह जाते; इसमें उनको हानि ही क्या थी। शायद उन्हें देहातियों के साथ एक रात काटने का अवसर पाकर खुशी होती। आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित रूप से उनमें समाती जाती है। कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का हास हो रहा है।

सहसा सड़क की ओर प्रकाश दिखाई दिया। ज़रा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दीं, जैसे किसी को खोज रही हों। एकाएक दोनों उसी स्थान पर पहुँचकर रुक गईं, जहाँ चक्रधर की मोटर टूटी पड़ी थी। फिर कई आदमी मोटर से उतरते दिखाई दिए। चक्रधर समझ गए कि मेरी तलाश हो रही है। तुरन्त उठ खड़े हुए। उनके साथ गाँव के लोग भी चले। समीप आकर देखा, तो सड़क की तरफ़ से लोग इसी गाँव की तरफ़ चले आ रहे थे। उनके पास बिजली की बत्तियाँ थीं। समीप आने पर मालूम हुआ कि रानी मनोरमा पाँच सशस्त्र सिपाहियों के साथ चली आ रही हैं। चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गए। रानी उन्हें देखते ही ठिठक गईं और घबराई हुई आवाज़ में बोलीं–बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आई? मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गए। अब मैं आपको अकेले कभी न घूमने दिया करूँगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book