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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


‘पिया मिलन है कठिन बावरी! ’

प्रेम करुणा और नैराश्य में डूबी हुई यह ध्वनि सुनते ही महेन्द्र की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। आह! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अंतस्तल पर सर जैसी चोंटे करने लगा। बार-बार हृदय थामकर रह जाते थे। सहसा उनका मन एक अत्यंत प्रबल आवेग से आंदोलित हो उठा। लालसा-विह्लल मन ने कहा–यह संयम कब तक? इस जीवन का भरोसा ही क्या? जाने कब इसका अंत हो जाए और ये चिरसंचित अभिलाषाएँ भी धूल में मिल जाएँ। अब जो होना है, सो हो!

अनंत शांति का साम्राज्य था, यान प्रतिक्षण और ऊपर चढ़ता जाता था। महेन्द्र ने देवप्रिया का कोमल हाथ पकड़कर कहा–प्रिये, अनन्त वियोग से तो अनन्त विश्राम ही अच्छा!

वीणा देवप्रिया के हाथ से छूटकर गिर पड़ी। उसने देखा, महेन्द्र के काम-प्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गए हैं और उनके दोनों हाथ उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं। देवप्रिया एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए सब कुछ भूल गई। उसके दोनों हाथ महेन्द्र के गले में जा पड़े।

एकाएक धमाके की आवाज़ हुई। देवप्रिया चौंक पड़ी। उसे मालूम हुआ यान बड़े वेग से नीचे जा रहा है। उसने अपने को महेन्द्र के कर-पाश से मुक्त कर लिया और घबराकर बोली–प्राणनाथ, यान नीचे चला जा रहा है।

महेन्द्र ने कुछ उत्तर न दिया।

देवप्रिया ने फिर कहा–ईश्वर के लिए इसे रोकिए। देखिए, कितने वेग से नीचे गिर रहा है।

महेन्द्र ने व्यथित कंठ से कहा–प्रिये! अब इसे मैं नहीं रोक सकता। मेरे पैर काँप रहे हैं, मालूम होता है, जीवन का अंत हो रहा है। आह! आह! प्रिये! मैं गिर रहा हूँ।

देवप्रिया उन्हें सँभालने चली थी कि महेन्द्र गिर पड़े। उनके मुँह से केवल ये शब्द निकले–डरो मत, यान भूमि से टक्कर न खाएगा, तुम हर्षपुर जाकर राज्याधिकार अपने हाथ में लेना। मैं फिर आऊँगा, हम और तुम फिर मिलेंगे, अवश्य मिलेंगे, अतृप्त तृष्णा फिर मुझे तुम्हारे पास लाएगी, विधि का निर्दय हाथ भी उसमें बाधक नहीं हो सकता। इस प्रेम की स्मृति देवलोक में भी मुझे विकल करती रहेगी। आह! इस अनन्त विश्राम की उपेक्षा अनन्त वियोग कितना सुखकर था!

देवप्रिया खड़ी रो रही थी और यान वेग से नीचे उतरता जाता था।

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