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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
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चक्रधर को रात भर नींद न आई। उन्हें बार-बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीन जनों की सहायता में गुज़रा हो, उसमें यह कायापलट नैतिक पतन से कम न था। आह! मुझ पर भी प्रभुत का जादू चल गया। इतने संयत रहे पर भी मैं उसके जाल में फँस गया। कितना चतुर शिकारी है! अब मुझे अनुभव हो गया कि इस वातावरण में रहकर मेरे लिए अपनी मनोवृत्तियों को स्थिर रखना असम्भव है। धन में धर्म है, उदारता है; लेकिन इसके साथ ही गर्व भी है, जो इन गुणों को मटिया-मेट कर देता है।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे, और अहिल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अँगड़ाइयाँ ले रही थी। चारपाई के सामने ही दीवार में एक बड़ा-सा आइना लगा हुआ था। वह उस आइने में अपना स्वरूप देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। सहसा शंखधर एक रेशमी कुर्ता पहने लुढ़कता हुआ आकर उनके सामने खड़ा हो गया। अहिल्या ने हाथ फैलाकर कहा–बेटा, ज़रा मेरी गोद में आ जाओ।
शंखखर अपना खोया हुआ घोड़ा ढूँढ़ रहा था–बोला–अम नई...
अहिल्या–देखो, मैं तुम्हारी अम्माँ हूँ ना?
शंखधर–तुम अम्माँ नईं। अम्माँ लानी है।
अहिल्या–क्या मैं रानी नहीं हूँ?
शंखधर ने उसे कुतूहल से देखकर कहा–तुम लानी नईं। अम्माँ लानी है। अहिल्या ने चाहा कि बालक को पकड़ ले; पर वह ‘तुम लानी नईं, तुम लानी नईं! ’ कहता हुआ कमरे से निकल गया। बात कुछ न थी; लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा। यह भी उसकी समझ में मनोरमा की कूटनीति थी। वह उससे राज-माता का अधिकार छीनना चाहती है। वह बालक को पकड़ लाने के लिए उठी ही थी कि चक्रधर ने कमरे में कदम रखा। उन्हें देखते ही अहिल्या ठिठक गई और त्यौरियाँ चढ़ाकर बोली–अब तो रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।
चक्रधर–कुछ तुम्हें ख़बर भी है। आध घण्टे तक जगाता रहा, जब तुम न जागीं, तो चला गया। यहाँ आकर तुम सोने में कुशल हो गईं।
अहिल्या–बातें बनाते हो। तुम रात को यहाँ थे ही नहीं। १२ बजे तक जागती रही। मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी। अब मुझे यह एक और चिन्ता हुई।
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