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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा अभी सिर झुकाये खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैण्डबैग उठाया और बाहर निकले। दरबान ने पूछा–सरकार इस वक़्त कहाँ जा रहे हैं?
चक्रधर ने मुस्कुराकर कहा–ज़रा मैदान की हवा खाना चाहता हूँ। भीतर बड़ी गर्मी है, नींद नहीं आती।
दरबान–मैं भी सरकार के साथ चलूँ?
चक्रधर–नहीं, कोई ज़रूरत नहीं।
बाहर आकर चक्रधर ने राजभवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्त्र नेत्रों वाले पिशाच की भाँति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह मेरी ओर देखकर हँस रहा है ओर कह रहा है, तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे चले जाने से यहाँ किसी को दुःख होगा? इसकी चिन्ता न करो। यहाँ यही बहार रहेगी, यों ही चैन की बंशी बजेगी। तुम्हारे लिए कोई दो बूँद आँसू भी न बहाएगा। जो लोग मेरे आश्रय में आते हैं, उनका मैं कायाकल्प कर देता हूँ, उनकी आत्मा को महानिद्रा की गोद में सुला देता हूँ।
अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊँ, सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिये निकलते दिखाई दिये। समीप आने पर मालूम हुआ कि मनोरमा है। वह सिपाहियों के साथ लपकी हुई सड़क की ओर चली आ रही थी। चक्रधर समझ गये, यह मुझे ढूँढ़ रही है। उनके जी में एक बार प्रबल इच्छा हुई। कि उसके चरणों पर गिरकर कहे–देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ। मैं नीच, पामर, अभागा हूँ। मुझे जाने दो, मेरे हाथों तुम्हें सदा कष्ट मिलता है और मिलेगा।
मनोरमा अपने आदमियों से कह रही थी–अभी कहीं दूर न गयें होंगे। तुम लोग पू्र्व की ओर जाओ, मैं एक आदमी के साथ इधर जाती हूँ। बस, इतना ही कहना कि रानीजी ने कहा है, जहाँ चाहे जाएँ, पर मुझसे मिलकर जाएँ।
राजभवन के सामने एक मनोहर उद्यान था। चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गये। मनोरमा सामने से निकल गयी। चक्रधर का कलेजा धड़क रहा था कि कहीं पकड़ न लिया जाऊँ, दोनों तरफ़ के रास्ते बंद थे। बारे उन्हें ज़्यादा देर तक न रहना पड़ा। मनोरमा कुछ दूर जाकर लौट आयी। उसने निश्चय किया कि इधर-उधर खोजना व्यर्थ है? चक्रधर की जान-में-जान आयी, ज्यों ही रानी इधर आयीं वह कुंज से निकलकर कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे। फिर उन्हें कोई पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मंद पड़ चली–चक्रधर ने और तेज़ी से कदम बढ़ाया।
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