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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहते-कहते मनोरमा की आँखें डबड़बा आईं। चक्रधर ने गद्गद कंठ से कहा–वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा? आपके बगैर तो वह एक दिन भी न रहेगा।

मनोरमा–यह मैं कैसे कहूँ? माता-पिता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकते हैं, उतना दूसरा कौन कर सकता है?

अहिल्या यह वाक्य सुनकर तिलमिला उठी। पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था। वह न यहाँ से जाना चाहती थी, न पति को जाने देना चाहती थी। शंखधर की आड़ में वह अपने मनोभाव को छिपाये हुये थी। उसे विश्वास था कि रानी शंखधर को कभी न जाने देंगी और न चक्रधर उनसे इस विषय में कुछ कह सकेंगे, पर जब रानी ने यह शस्त्र उसके हाथ से छीन लिया, तो क्या सब दिखावे ही का प्रेम था? आप तो कहती थीं, यह मेरा प्राण है, यह मेरा जीवन आधार है, क्या वह सब केवल बातें थीं? क्या हमारी आँखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वाँग रचा था? आप हम लोगों को दूध की मक्खी की भाँति निकालकर अखंड राज्य करना चाहती हैं? यह न होगा। दादाजी को आप कोई दूसरा मंत्र न पढ़ा सकेंगी। मेरे पुत्र का अहित आप न कर सकेंगी। मैं अब यहाँ से टलनेवाली नहीं। यह समझ लीजिएगा। अगर आपने समझ रखा हो कि इन सबों को भगाकर अपने भाई-भतीजे को यहाँ उठा ला बिठाऊँगी, तो उस धोखे में न रहिएगा!

यह कहते-कहते अहिल्या उसी क्रोध से भरी हुई राजा साहब के शयनगृह की ओर चली। मनोरमा स्तम्भित-सी खड़ी रह गई। उसकी आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे।

चक्रधर मनोरमा को क्या मुँह दिखाते? अहिल्या के इन वज्र कठोर शब्दों ने मनोरमा को इतनी पीड़ा नहीं पहुँचायी थी, जितनी उनको। मनोरमा दो-एक बार और भी ऐसी ही बातें अहिल्या के मुख से सुन चुकी थीं और उसके स्वभाव से परिचित हो गयी थीं। चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का पहला अवसर था। वही अहिल्या, जिसे वह नम्रता, मधुरता, शालीनता की देवी समझते थे, आज पिशाचिनी के रूप में उन्हें दिखाई दी। मारे ग्लानि के उनकी ऐसी इच्छा हुई कि धरती फट जाये और मैं समा जाऊँ, फिर इसका मुँह न देखूँ, न अपना मुँह दिखाऊँ। जिस रमणी के उपकारों से उनका एक-एक रोयाँ आभारी था, उसके साथ यह व्यवहार! उसके उपकारों का यह उपहार? यह तो नीचता की चरम-सीमा है? उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मेरे मुँह में कालिख लगी हुई है। वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके। उसके मन में विराग की एक तरंग-सी उठी। मन ने कहा–यही तुम्हारी भोग-लिप्सा का दंड है, तुम इसी के भूखे थे। जिस दिन तुम्हें मालुम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उस दिन यहाँ से मुँह में कालिख लगाकर चले गये? इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूँगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी? तुम समझते थे कि स्त्री की दृष्टि में पति-प्रेम ही संसार की सबसे अमूल्य वस्तु है? यह तुम्हारी भूल थी। आज उसी स्त्री ने पति प्रेम को कितनी निर्दयता से ठुकरा दिया; तुम्हारे हवाई क़िलों को विध्वंश कर दिया और तुम्हें कहीं का न रखा।

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