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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
एक दिन शंखधर नौ बजे ही आ पहुँचा। गुरुसेवकसिंह उनके साथ थे,। यह महाशय रियासत जगदीशपुर के तसले थे। जिस अवसर पर जो काम जरूरी समझा जाता था, वही उनसे लिया जाता था। निर्मला उस समय स्नान करके तुलसी को जल चढ़ा रही थी। जब वह जल चढ़ाकर आयी, तो शंखधर ने पूछा–दादीजी, तुम पूजा क्यों करती हो?
निर्मला ने शंखधर को गोद में लेकर कहा–बेटा, भगवान् से माँगती हूँ कि मेरी मनोकामना पूर्ण करें।
शंखधर-भगवान् सबके मन की बात जानते हैं?
निर्मला–हाँ बेटा, भगवान् सब कुछ जानते हैं?
शंखधर–दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है?
निर्मला–यही बेटा, कि तुम्हारे बाबूजी आ जायें और तुम जल्दी से बड़े हो जाओ।
शंखधर बाहर मुंशीजी के पास चला गया और उनके पास बैठकर सितार की गत्नें सुनता रहा।
दूसरे दिन प्रातःकाल शंखधर ने स्नान किया, लेकिन स्नान करके वह जलपान करने न आया। गुरुसेवकसिंह के पास पढ़ने भी न गया। न जाने कहाँ चला गया। अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहाँ भी न था। अपने कमरे में भी न था। छत पर भी नहीं। दोनों रमणियाँ घबराई कि स्नान करके कहाँ चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा, हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहाँ चले गये,यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गईं। वहाँ वह न दिखाई दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहाँ दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहाँ गईं और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगीं। शंखधर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे, आँखें बंद किये ध्यान-सा लगाए बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के बाद उसने आँखें खोलीं, कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की वन्दना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएँ आड़ से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गईं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा–वहाँ क्या करते थे बेटा?
शंखधर–कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।
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