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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा–नहीं, कुछ तो कर रहे थे।

शंखधर–जाईए, आपसे क्या मतलब?

अहिल्या–तुम्हें न बतायेंगे। मैं इसकी अम्माँ हूँ, मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हाँ बेटे, बता क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूँगी।

शंखधर ने आँखों में आँसू भरकर कहा–कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान् पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।

सरल बालक की यह पितृ-भक्ति और श्रद्घा देखकर दोनों महिलायें रोने लगीं।
इस बेचारे को कितना दुःख है। शंखधर ने फिर पूछा–क्यों अम्माँ, तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखतीं?

अहिल्या ने कहा–कहाँ लिखूँ बेटा, उनका पता भी तो नहीं जानती!

३६

इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गयी थी। गुरुसेवकसिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मात्साह हुआ था। इस यात्रा के शुभ फल में उनको भी हिस्सा मिलेगा, वह तो नहीं कहा जा सकता; पर उनके पिता को अवश्य मिलने की सम्भावना थी। जब से वह गयी थीं, दीवान साहब दीवाने हो गये थे। यहाँ तक कि गुरुसेवक को कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए जरूरी है। घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज़्यादा न टिकता था, कितने ही पहली ही फटकार में छोड़कर भागते थे। रियासत से पकड़कर भेजे जाते थे, तब कहीं जाकर काम चलता था। गुरुसेवक के सद्व्यवहार और मिष्ट भाषण का कोई असर न होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाए। भोजन वह अब बहुत थोड़ा करते थे। लौंगी दिन भर में दो-ढाई सेर दूध उनके पेट में भर दिया करती थी, आध पाव के लगभग घी भी किसी-न-किसी तरह पहुँचा ही देती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति-सेवा का वह अमर सिद्धान्त, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उनकी आँखों के सामने रहता था। वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए।

ठाकुर साहब लौंगी की अब सूरत भी नहीं देखना चाहते थे, इसी आशय के पत्र उसको लिखा करते हैं। लिखते हैं, तुमने मेरी जिन्दगी चौपट कर दी। मेरा लोक और परलोक, दोनों बिगाड़ दिया। शायद लौंगी को जलाने ही के लिए ठाकुर साहब सभी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करते थे–खाना कम, शराब अधिक, नौकरों पर क्रोध, नौ बजे तक सोना। सारांश यह है कि जिन बातों को वह रोकती थी, वही आजकल की दिनचर्या बनी हुई थी। दीवान साहब इसकी सूचना भी दे देते, और पत्र के अन्त में यह भी लिख देते थे–अब तुम्हारे यहाँ आने की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं। मेरी बहू तुमसे कहीं अच्छी तरह मेरी सेवा कर रही है। उसने मासिक ख़र्च में कोई दो सौ रुपये की बचत निकाल दी है। तुम्हारे लिए वही आमदनी पूरी न पड़ती थी। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य करते थे। उनकी पाचन-शक्ति अब बहुत अच्छी हो गयी थी, रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई सम्भावना न थी।

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