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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–यहाँ तो मेरे सिवा कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? फिर डॉक्टर को बलाऊँ?
हरिसेवक–मेरा जी घबरा रहा है, रह-रहकर डूबा जाता है। कष्ट कोई नहीं, कोई पीड़ा नहीं। बस, ऐसा मालूम होता है कि दीपक में तेल नहीं रहा। गुरुसेवक शाम तक पहुँच जायेगा?
मनोरमा–हाँ, कुछ रात जाते-जाते पहुँच जाएँगे।
हरिसेवक–कोई तेज़ मोटर हो, तो मैं शाम तक पहुँच जाऊँ।
मनोरमा–इस दशा में इतना लम्बा सफ़र आप कैसे कर सकते हैं?
हरिसेवक–हां, यह ठीक कहती हो, बेटी! मगर मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था! जब तक वह रही, मेरे सिर में कभी दर्द भी न हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थ-यात्रा की बात कही, तो मेरे मुँह से एक बार भी न निकला–तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो? अगर मैं यह कह सकता, तो वह कभी न जाती। एक बार भी नहीं रोका। मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था। मुझे उस वक़्त यह न सूझ पड़ा कि...
यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले–यह कौन अन्दर आया, नोरा? ये सभी क्यों मुझे घेरे हुए हैं?
मनोरमा ने घबराते हुए हृदय से उमड़नेवाले आँसुओं को दबाकर पूछा–क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?
हरिसेवक–वह कुछ नहीं था, नोरा! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये, बुरे काम बहुत किये। अच्छे काम जितने किये वे लौंगी ने किये। बुरे काम जितने किये, वे मेरे हैं। उनके दंड का भागी मैं हूँ। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शान्त होती। एक बात तुमसे पूछूँ नोरा, बताओगी?
मनोरमा–खुशी से पूछिए।
हरिसेवक–तुम अपने भाग्य से संतुष्ट हो?
मनोरमा–यहा आप क्या पूछते हैं? क्या मैंने आपसे कभी कोई शिकायत की है?
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