लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा–मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?

हरिसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आँखें जगमगा उठीं, प्रसन्नमुख होकर बोले–नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो, अगर लौंगी आये और मैं न रहूँ, तो उसकी ख़बर लेती रहना। उसने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसनों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सतायेगा, उसे घर से निकालेगा, लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहूँ, तो अपनी सारी सम्पत्ति उसके नाम लिख सकता हूँ। यह सब जायेजाद मेरी पैदा की हुई है। मैं अपना सब लौंगी को दे सकता हूँ। लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्टा मेरी जायजाद का एक पैसा भी न छूयेगी। वह अपने गहने-पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस, वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जायेगी; लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खायेगी। यह उसका स्वभाव है। गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना। नोरा, जिस दिन से वह गई है, मैं कुछ और ही हो गया हूँ। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गई है। मुझे अपने ऊपर ज़रा भी भरोसा नहीं रहा। मुझमें निश्चय करने की शक्ति ही नहीं रही। अपने कर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहा। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नोरा?

मनोरमा–बहुत पहले की बातें तो नहीं याद हैं, लेकिन लौंगी अम्माँ का मुझे गोद में खिलाना खूब याद है। अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्माँ मुझे पंखा झला करती थीं।

हरिसेवक ने अवरुद्ध कंठ से कहा–उससे पहले की बात है नोरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था। और तुम्हारी माता तुम्हें साल भर का छोड़कर चल बसी थीं। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्मा-हत्या कर लूँ। नोरा, जैसी तुम हो, वैसी ही तुम्हारी माता भी थीं। उनका स्वभाव भी तुम्हारे जैसा था। मैं बिलकुल पागल हो गया था। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। मैं उसके स्वरूप और यौवन पर न रीझा! तुम्हारी माता के बाद किसका स्वरूप और यौवन मुझे मोहित कर सकता था! मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर नहीं कर सकती थीं। गुरुसेवक की बीमारी की याद तुम्हें क्या आयेगी? न जाने इसे कौन सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। छः महीने तक उसकी यही दशा रही। जितनी दवा-दारू उस समय कर सकता था, वह सब करके हार गया। झाड़-फूँक, दुआ-ताबीज़ सब कर चुका था। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर काँटा हो गया। रोता तो इस तरह, मानों कराह रहा है। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया। कोई माता अपने बालक की इतनी सेवा नहीं कर सकती। जो उसके त्यागमय स्नेह को देखता, दाँतों तले उँगली दवाता था। क्या वह लोभ के बस अपने को मिटाये देती थी? लोभ में भी कहीं त्याग होता है? और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुये है। मूर्ख यह नहीं सोचता, जिस समय लौंगी उसका पंज़र गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहाँ था? सच पूछो तो लक्ष्मी लौंगी के समय ही आयी, बल्कि लक्ष्मी ही लौंगी के रूप में आयी। लौंगी ही ने भाग्य को रचा। जो कुछ किया, उसी ने किया, मैं तो निमित्त मात्र था। क्यों नोरा, सिरहाने कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहाँ से जाये।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book