उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
गुरुसेवक सिंह की इच्छा तो न थी कि चक्रधर से इस कलह के संबंध में कुछ कहें; लेकिन जब लौंगी ने उन्हें पंच बनाने में संकोच न किया, तो वह भी खुल पड़े। बोले–महाशय, इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिए आए, क्यों नहीं किसी तीर्थस्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे दिन काटती? मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुँचा दीजिए, और वह तैयार भी हो गए थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किए और न गयी। आपसे अब तो कोई परदा नहीं है, इसके कारण मैंने यहाँ रहना छोड़ दिया। इसके साथ इस घर में रहते हुए मुझे लज्जा आती है। इसे इसकी ज़रा भी परवाह नहीं कि जो लोग सुनते होंगे, वे दिल में क्या कहते होंगे। हमें कहीं मुँह दिखाने को जगह नहीं रही। मनोरमा अब सयानी हुई। उसका विवाह करना है या नहीं? इसके घर में रहते हुए हम किस भले आदमी के द्वार पर जा सकते हैं? मगर इसे इन बातों की बिल्कुल चिन्ता नहीं। बस, मरते दम तक घर की स्वामिनी बनी रहना चाहती है। दादाजी भी सठिया गए हैं, उन्हें मान-अपमान की ज़रा भी फ़िक्र नहीं। इसे उन पर न जाने क्या मोहिनी डाल दी है कि इसके पीछे मुझसे लड़ने पर तैयार रहते हैं। आज मैं निश्चय करके आया हूँ कि इसे घर से बाहर निकालकर ही छोड़ूँगा। या तो यह किसी दूसरे मकान में रहे या किसी तीर्थ-स्थान को प्रस्थान करे।
लौंगी–तो बच्चा सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी। जब वह न रहेगा, तो जो सिर पर प़ड़ेगी, झेल लूँगी। जो तुम चाहो कि लौंगी गली-गली ठोकरें खाए तो यह न होगा! मैं लौंडी नहीं हूँ कि घर से बाहर रहूँ। तुम्हें यह कहते लज्जा नहीं आती? चार भाँवरें फिर जाने से ही ब्याह नहीं हो जाता। मैंने अपने मालिक की जितनी सेवा की है और करने को तैयार हूँ, उतनी कौन ब्याहता करेगी। लाए तो हो बहू, कभी उठकर एक लुटिया पानी भी देती है? खायी है कभी उसकी बनाई हुई कोई चीज़? नाम से कोई ब्याहता नहीं होती, सेवा और प्रेम से होती है।
गुरुसेवक–यह तो मैं जानता हूँ कि तुझे बातें बहुत करनी आती हैं; पर अपने मुँह से जो चाहे बने, मैं तुझे लौंडी ही समझता हूँ।
लौंगी–तुम्हारे समझने से क्या होता है; अभी तो मेरा मालिक जीता है। भगवान् उसे अमर करें! जब तक जीती हूँ, इसी तरह रहूँगी, चाहे तुम्हें अच्छा लगे या बुरा, जिसने जवानी में बाँह पकड़ी, वह क्या अब छोड़ देगा? भगवान् को कौन मुँह दिखाएगा?
यह कहती हुई लौंगी घर में चली गई। मनोरमा चुपचाप सिर झुकाए दोनों की बातें सुन रही थी। उसे लौंगी से सच्चा प्रेम था। मातृ-स्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी ही से मिला था। उसकी माता तो उसे गोद में छोड़कर परलोक सिधारी थीं। उस एहसान को वह कभी न भूल सकती थी। अब भी लौंगी उस पर प्राण देती थी। इसलिए गुरुसेवक सिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी।
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