उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं, जैसे भागना चाहते हों। क्या माता किसी सुंदर बालक को देखकर यह नहीं सोचती कि मेरा भी बालक ऐसा ही होता!
चक्रधर ने लज्जित होकर कहा–मेरा आशय यह न था। मैं यही कहना चाहता था कि सुन्दरता के विषय में सबकी राय एक-सी नहीं हो सकती।
मनोरमा–आप फिर भागने लगे। मैं जब आपसे यह प्रश्न करती हूँ, तो उसका साफ़ मतलब यह है आप उन्हें सुन्दर समझते हैं या नहीं?
चक्रधर लज्जा से सिर झुकाकर बोले–ऐसी बुरी तो नहीं है।
मनोरमा–तब तो आप उन्हें खूब प्यार करेंगे?
चक्रधर–प्रेम केवल रूप का भक्त नहीं होता।
सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनाई दिया। चक्रधर ने पूछा–यह लौंगी रो रही है?
मनोरमा–जी हाँ! आपकी तो भाई साहब से भेंट नहीं हुई। गुरुसेवक सिंह नाम है। कई महीनों से देहात में ज़मींदारी का काम करते हैं। हैं तो सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं; लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गई। जब आते हैं लौंगी अम्माँ से झूठमूठ तकरार करते हैं। न जाने उससे इन्हें क्या अदावत है।
इतने में गुरुसेवक सिंह साल-लाल आँखें किए निकल आये और मनोरमा से बोले–बाबूजी कहाँ गए हैं? तुझे मालूम है कब तक आएँगे? मैं आज ही फैसला कर लेना चाहता हूँ।
गुरुसेवक सिंह की उम्र २५ वर्ष से अधिक न थी। लम्बे, छरहरे एवं रूपवान थे; आँखों पर ऐनक थी, मुँह में पान का बीड़ा, देह पर तनज़ेब का कुरता, माँग निकली हुई। बहुत शौक़ीन आदमी थे।
चक्रधर को बैठे देखकर वह कुछ झिझके और अन्दर लौटना ही चाहते थे कि लौंगी रोती हुई आकर चक्रधर के पास खड़ी हो गई और बोली–बाबूजी, इन्हें समझाइए कि मैं अब बुढ़ापे में कहाँ जाऊँ? इतनी उम्र तो इस घर में कटी, अब किसके द्वार पर जाऊँ? जहाँ इतने नौकरों-चाकरों के लिए खाने को रोटियाँ हैं, क्या वहाँ मेरे लिए एक टुकड़ा भी नहीं? बाबूजी, सच कहती हूँ, मैंने इन्हें अपना दूध पिलाकर पाला है; मालकिन के दूध न होता था, और अब यह मुझे घर से निकालने पर तुले हुए हैं।
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