उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–जब किसी पुरुष का एक स्त्री के साथ पति-पत्नी का संबंध हो जाए, तो पुरुष का धर्म है कि स्त्री की ओर से कोई विरूद्ध आचरण न देखे, उस सम्बन्ध को निबाहे।
गुरुसेवक–चाहे स्त्री कितनी ही नीच जाति की हो?
चक्रधर–हाँ, चाहे किसी भी जाति की हो!
मनोरमा यह जवाब सुनकर गर्व से फूल उठी। वह आवेश में उठ खड़ी हुई और पुलकित होकर खिड़की के बाहर झँकने लगी। गुरुसेवक सिंह वहाँ न होते तो वह ज़रूर कह उठती–आप मेरे मुँह से बात ले गए।
एकाएक फिटन की आवाज़ आयी और ठाकुर साहब उतरकर अन्दर गये। गुरुसेवक सिंह भी उनके पीछे-पीछे चले। वह डर रहे थे कि लौंगी अवसर पाकर कहीं उसके कान न भर दे।
जब वह चले गये, तो मनोरमा बोली–आपने मेरी मन की बात कही। बहुत-सी बातों में मेरे विचार आपके विचारों से मिलते हैं।
चक्रधर–उन्हें बुरा तो ज़रूर लगा होगा!
मनोरमा–वह फिर आपसे बहस करने आते होंगे। अगर आज मौक़ा न मिलेगा तो कल करेंगे। अबकी वह शास्त्रों के प्रमाण पेश करेंगे, देख लीजिएगा।
चक्रधर–खैर, यह तो बताओ कि तुमने इन चार-पाँच दिनों में क्या काम किया?
मनोरमा–मैंने तो किताब तक नहीं खोली। बस, समाचार पढ़ती थी और वही बातें सोचती थी। आप नहीं रहते तो मेरा किसी काम में जी नहीं लगता। आप अब कभी बाहर न जाइएगा।
चक्रधर ने मनोरमा की ओर देखा, तो उसकी आँखें सजल हो गई थीं। सोचने लगे, बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना कोमल और कितना भावमय है।
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