लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....

जगदीशपुर की रानी देवप्रिया का जीवन केवल दो शब्दों में समाप्त हो जाता था–विनोद और विलास। इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास-वृत्ति अणुमात्रा भी कम न हुई थी। हमारी कर्मेन्द्रियाँ भले ही जर्जर हो जाएँ, चेष्टाएँ तो वृद्ध नहीं होतीं! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषाओं की समाधि है, या पुराने पापों को पश्चात्ताप; पर रानी देवप्रिया का बुढ़ापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना। वह दान-पुण्य बहुत करती थीं; साल में दो-चार यज्ञ भी करा लिया करती थीं, साधु-सन्तों पर उनकी असीम श्रद्धा थी और इस धर्मनिष्ठा में उनका ऐहिक स्वार्थ छिपा होता था। परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न आती थी। वह भूल गई थीं कि इस जीवन के बाद भी कुछ है। उनके दान और स्नान का मुख्य उद्देश्य था–शारीरिक विकारों से निवृत्ति, विलास में रत रहने की परम योग्यता। यदि वह किसी देवता को प्रसन्न कर सकतीं, तो कदाचित् उससे यही वरदान माँगतीं कि वह कभी बूढ़ी न हों। इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भाँति-भाँति के रसों को पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थीं। चेहरे की झुर्रियाँ मिटाने और रंग को चमकाने के लिए भी कितने प्रकार के पाउडरों, उबटनों और तेलों से काम लिया जाता था। वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयंकर न थी। चिन्ताको वह अपने पास कभी फटकने न देती थीं। रियासत उनके भोग-विलास का साधन मात्र थी। प्रजा को कष्ट होता है, उन पर कैसे-कैसे अत्याचार होते हैं, सूखे-झूरे की विपत्ति क्योंकर उनका सर्वनाश कर देती है, इन बातों की ओर कभी उनका ध्यान न जाता था। उन्हें जिस समय जितने धन की ज़रूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था। वह ऋण लेकर दे, चोरी करे या प्रजा का गला काटे, इससे उन्हें कोई प्रयोजन न था।

यों तो रानी साहब को हर प्रकार के विनोद से समान प्रेम था–चाहे वह थिएटर हो, या पहलवानों का दंगल, या अंग्रेज़ी नाच, पर उनके जीवन की सबसे आनन्दमय घड़ियाँ वे ही होती थीं, जब वह युवकों और युवतियों के साथ प्रेम-क्रीड़ा करती थीं। इस मण्डली में बैठकर उन्हें आत्म-प्रवंचना का सबसे अच्छा अवसर मिलता था। वह भूल जाती थीं कि मेरा यौवन काल बीत चुका है। अपने बुझे हुए यौवन-दीप को युवाओं की प्रज्वलित-स्फूर्ति की भाँति सदा प्रज्वलित रखती थीं नीचों को मुँह न लगाती थीं। काशी आनेवाले राजकुमारों और राजकुमारियों ही से उनका सहवास रहता था। आनेवालों की कमी न थी। एक-न-एक हमेशाही आता रहता था। रानी की अतिथिशाला हमेशा आबाद रहती थी। उन्हें युवकों की आँखों में डूब जाने की सनक-सी थी। वह चाहती थी कि मेरे सौन्दर्य-दीपक पर युवक पतंगे की भाँति आकर गिरें। उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी।

एक दिन ठाकुर हरिसेवक सिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गए। रानी उसे देखकर मोहित हो गईं। तब से दिन में एक बार उससे ज़रूर मिलतीं। वह किसी कारण से न आतीं, तो उसे बुला भेजतीं। उसका मधुर गाना सुनकर वह मुग्ध हो जाती थीं। हरिसेवक सिंह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहाँ मनोरमा को रईसों और राजकुमारों को आकर्षित करने का मौक़ा मिलेगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book