उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रानी–बड़ी देर लगायी! तेरी राह देखते-देखते आँखें थक गईं।
मनोरमा–पानी के मारे घर से निकलने ही हिम्मत ही न पड़ती थी।
रानी–राजकुमार ने न जाने क्यों देर की। आ, तब तक कोई गीत सुना।
यहीं हौज़ के किनारे एक संगमरमर का चबूतरा था। दोनों जाकर उस पर बैठ गई।
रानी–क्या मैं बहुत बुरी लगती हूँ?
मनोरमा–आप? आप तो सौन्दर्य की देवी मालूम होती हैं!
रानी–चल झूठी। मुझसे अपना रूप बदलेगी?
मनोरमा–मैं तो आपकी लौंडी की तरह भी नहीं हूँ। मुझे आपके साथ बैठते शरम आती है।
रानी–अच्छा, बता, संसार में सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है?
मनोरमा–कोहिनूर हीरा होगा, और क्या?
रानी–धत् पगली! संसार की सबसे उत्तम, देव-दुर्लभ वस्तु यौवन है। बता, तूने किसी से प्रेम किया है?
मनोरमा–जाइए, मैं आपसे नहीं बोलती।
रानी–आह! तूने तीर मार दिया। यही बिगड़ना तो पुरुषों का जादू का काम करता है। काश, मेरे मुँह से ऐसी बातें न निकलतीं! सच बता, तूने किसी युवक से कभी प्रेम किया है? अच्छा आ, आज मैं सिखा दूँ।
मनोरमा–आप मुझे छेड़ेंगी, तो मैं चली जाऊँगी।
रानी–ऐ, तो इतना चिढ़ती क्यों है? ऐसी कोई बालिका तो नहीं। देख, सबसे पहली बात है, कटाक्ष करने की कला में निपुण होना। जिसे यह कला आती है, वह चाहे चन्द्रमुखी न हो; फिर भी पुरुष का हृदय छीन सकती है; सौन्दर्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता, उसी तरह जैसे कोई सिपाही शस्त्रों से कुछ नहीं कर सकता, जब तक वह उन्हें चलाना न जानता हो। चतुर खिलाड़ी एक बाँस की छड़ी से वह काम कर सकता है, जो दूसरे संगीन और बन्दूक़ से भी नहीं कर सकते। मान ले, मैं तेरा प्रेमी हूँ। बता, मेरी ओर कैसे ताकेगी?
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