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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


रानी–नहीं, आज ऐसा ही अवसर है।

नाइन बड़ी निपुण थी, तुरन्त श्रृंगारदान खोलकर बैठ गई और रानी का श्रृंगार करने लगी, मानो कोई चित्रकार तस्वीर में रंग भर रहा हो। आधा घंटा भी न गुज़रा था कि उसने रानी के केश गूँथकर नागिन की-सी लटें डाल दीं। कपोलों पर एक ऐसा रंग भरा कि झुर्रियाँ ग़ायब हो गईं और मुख पर मनोहर आभा झलकने लगी। ऐसा मालूम होने लगा मानो कोई सुन्दरी युवती सोकर उठी है। वह अलसाया हुआ अंग था, वही मतवाली आँखें। रानी ने आईने की ओर देखा और प्रसन्न होकर बोलीं–गुजराती, तेरे हाथ में कोई जादू है। मैं तुझे अपने साथ स्वर्ग ले चलूँगी। वहाँ तो देवता लोग होंगे, तेरी मदद की और भी ज़रूरत होगी।

गुजराती–आप कभी इनाम तो देती नहीं। बस, बखान करके रह जाती हैं!

रानी–अच्छा, बता क्या लेगी?

गुजराती–मैं लूँगी तो वही लूँगी, जो कई बार माँग चुकी हूँ। रुपये-पैसे लेकर मुझे क्या करना।

यह एक दीवारगीर पर रखी हुई मदन की छोटी-सी मूर्ति थी। चतुर मूर्तिकार ने इस पर कुछ ऐसी कारीगरी की थी जिससे कि दिन के साथ उसका रंग बदलता रहता था।

गुजराती–अच्छा, तो न दीजिए; लेकिन फिर मुझसे कभी न पूछिएगा कि क्या लेगी?

रानी–क्या मुझसे नाराज़ हो गई? (चौंककर) वह रोशनी दिखायी दी! कुँवर साहब आ गए! मैं झूला-घर में जाती हूँ। वहीं लाना।

यह कहकर रानी ने फिर वही शीशी निकाली और दुगुनी मात्रा में दवा पीकर झूलाकर की ओर चलीं। यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पेंग ली जा सकती थीं। रेशम की डोरियों में पड़ा हुआ एक पचरा छत से लटक रहा था; पर चित्रकारों ने ऐसी कारीगरी की थी कि मालूम होता था, किसी वृक्ष की डील में पड़ा हुआ है। पौधों, झाड़ियों और लताओं ने उसे यमुना-तट का कुंज-सा बना दिया था। कई हिरन और मोर इधर-उधर विचरा करते थे। रात को उस भवन में पहुँचकर सहसा यह भान न होता था कि यह कोई भवन है। पानी का रिमझिम बरसना, ऊपर से हल्की-हल्की फुहारों का पड़ना, हौज़ में जल-पक्षियों का क्रीडा करना–यह सब किसी उपवन की शोभा दर्शाता था।

रानी झूले की डोरी पकड़कर खड़ी हो गई और एक हिरन के बच्चे को बुलाकर उसका मुँह सहलाने लगीं। सहसा कदमों ही आहट हुई। रानी मेहमान का स्वागत करने के लिए द्वार पर आयीं, पर यह राजकुमार  न थे, मनोरमा थी। रानी को कुछ निराशा तो हुई; किन्तु मनोरमा भी आज के अभिनय की पात्री थी। उन्होंने उसे बुलवा भेजा था।

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