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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


वह तो पढ़ने लग गई; लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपये लूँ या न लूँ। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिए बाहर निकल आये। मनोरमा रुपये लिए पीछे-पीछे बरमादे तक आयी। बार-बार कहती रही–इन्हें आप लेते जाइए।

जब दादाजी दें तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गए।

चक्रधर डरते हुए घर पहुँचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उस पर कालीन बिछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठे हुए हैं। उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फ़र्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गए। अनुमान से ताड़ गए कि यह महाशय वर की खोज में आये हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा तो अनुमान सच्चा निकला। बोले–दादाजी ने इनसे क्या कहा?

निर्मला ने मुस्कुराकर कहा–नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर कुँवारे ही रहोगे! जाओ, बाहर बैठो, तुम्हारा तो बड़ी देर से इन्तज़ार हो रहा है। आज क्यों इतनी देर लगायी?

चक्रधर–यह है कौन?

निर्मला–आगरे के कोई वकील हैं, मुंशी यशोदानन्दन!

चक्रधर–मैं तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊँगा।

निर्मला–वाह रे शर्मीले! तेरे जैसा लड़का तो देखा नहीं। आ, ज़रा सिर में तेल डाल दूँ, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ़ कपड़े पहनकर ज़रा देर के लिए बाहर जाकर बैठ।

चक्रधर–घर में भोजन भी है कि ब्याह ही कर देने को जी चाहता है? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूँगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए।

किन्तु स्नेहमयी माता कब सुननेवाली थी? उसने उन्हें ज़बरदस्ती पकड़कर सिर में तेल डाल दिया, सन्दूक से एक धुला कुर्ता निकाल लायी और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाए। चक्रधर ने गर्दन फेर ली।

निर्मला–मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैठूँगी। इधर ला सिर! क्या जन्म भर छूटे साँड बने रहने को जी चाहता है? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

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