उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश होकर ठाकुर साहब को एक पुरचा लिखकर अपना वेतन माँगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया–व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुरसत न थी और कहा–उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और कुछ शिष्टाचार के बाद रुपये माँगे। ठाकुर साहब हँसकर बोले–वाह बाबूजी, वाह! आप भी अच्छे मौज़ी जीव हैं। चार महीने से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न माँगा। अब तो आपके पूरे १२० रु. हो गए। मेरा हाथ इस वक़्त तंग है। ज़रा दस-पाँच दिन ठहरिए। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी! खैर, जाइए, दस-पाँच दिन में रुपये मिल जाएँगे।
चक्रधर कुछ कह न सके। लौटे, तो मुँह पर घोर निराशा छाई हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे–इस ख़याल से उनका दिल काँपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा–दादाजी ने आपसे क्या कहा?
चक्रधर उसके सामने रुपये-पैसे का ज़िक्र न करना चाहते थे। झेंपते हुए बोले–कुछ तो नहीं।
मनोरमा–आपको रुपये नहीं दिये?
चक्रधर का मुँह लाल हो गया–मिल जाएँगे।
मनोरमा–आपको १२० रु. चाहिए ना?
चक्रधर–इस वक़्त कोई ज़रूरत नहीं है।
मनोरमा–ज़रूरत न होती तो आप माँगते ही नहीं। दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपये देते हुए मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर...
चक्रधर ने रोककर कहा–नहीं, नहीं, कोई ज़रूरत नहीं।
मनोरमा नहीं मानी। तुरन्त घर में गयी और एक क्षण में पूरे रुपये लाकर मेज़ पर रख दिये, मानो कहीं गिने-गिनाये रखे हुए थे।
चक्रधर–तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया।
मनोरमा–मैंने उन्हें कष्ट नहीं दिया! उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की ज़रूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मँगवानी हो, तो तुरन्त मँगवा लेंगे; पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जाएँगे, पर जिसके रुपये होते हैं, उसको न देंगे।
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