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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर ने कहा–आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हाँ, मिज़ाज़ नाजुक हैं, बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।

विशालसिंह–मैं यहाँ से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज़्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जातें, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी-सी मालूम हो रही है, बैण्ड भी बज रहा है। क्या माज़रा है?

चक्रधर–हाँ, मशालें और लालटेनें हैं। बहुत-से आदमी भी साथ हैं। आदमी कतार बाँधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे-आगे दो अश्वारोही भी नज़र आते थे। बैण्ड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे; पर किसी की समझ में न आता था कि माज़रा क्या है?

११

सभी लोग बड़े कौतूहल से आनेवालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुँचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे। पीछे कोई पच्चीस-तीस आदमी साफ़-सुथरे कपड़े पहने चले जाते थे। दोनों तरफ़ कई झण्डी बरदार थे, जिनकी झण्डियाँ हवा में लहरा रही थी। सबसे पीछे बाजेवाले थे। मकान के सामने पहुँचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बाँधे हुए कुँवर साहब के सामने आकर खड़े हो गए। मुंशीजी की सज-धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिन्दुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले–दीनबन्धु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ-सूचना देने के लिए हाज़िर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान की छत्रछाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज से श्रीमान् हमारे भाग्यविधाता हुए। यह पत्र है, जो महारानी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था।

यह कहकर ठाकुर साहब ने रानी का पत्र विशालसिंह के हाथ में रख दिया। कुँवर साहब ने एक ही निगाह में उसे आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मन्द हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले–यद्यपि महारानी की तीर्थयात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यन्त खेद हो रहा है; लेकिन इस बात का सच्चा आनन्द भी है कि उन्होंने निवृत्ति मार्ग पर पग रखा, क्योंकि ज्ञान ही से मुक्ति प्राप्त होती है। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गर्दन पर जो कर्तव्य भार रखा है, उसे सँभालने की मुझे शक्ति प्रदान करे। आप लोगों को मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथायाध्य अपना कर्तव्य पालन करने में ऊँचे आदर्शों को सामने रखूँगा, लेकिन सफलता बहुत कुछ आप ही लोगों की सहानुभूति और सहकारिता पर निर्भर है, और मुझे आशा है कि आप मेरी सहायता करने में किसी प्रकार कोताही न करेंगे। मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त हो रहे हैं, मुझसे ज़रा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए।

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